Thursday, October 10, 2019

जो चमनजी मिथिला मैथिली और मिथिलावाद के नाम पर काकध्वनि कर रहे हैं उनके लिए बतौर विश्वाघात का नमूना पेश है.
स्वतंत्रता के बाद संपन्न हुए पहले आम चुनाव में सरकार तिरहुत के अंतिम शासक कामेश्वर सिंह दरभंगा से चुनाव लड़ रहे थे. उनका चुनाव चिन्ह था साइकिल छाप. कामेश्वर सिंह न केवल संविधान सभा के सदस्य थे. उनका व्यक्तित्व दबदबा ऐसा था की मिथिला विरोधी मिथिला का अहित करने से पहले दस बार सोचते थे. चुनाव में उन्होंने ढेर सारी साइकिल का वितरण करवाया था ताकि मतदाता और उनके इलेक्शन एजेंट बूथ तक सही समय पर जा सकें। उनके खिलाफ चुनाव प्रचार करने के लिए खुद पंडित जवाहरलाल नेहरू आये थे और दरभंगा में कह गए थे की इस सामंती जमींदार को दरभंगा सीट से हराना उनके नाक का सवाल है. मैथिलों को कहाँ उस समय एहसास रहा की कामेश्वर सिंह को उनके अपने हैं उनको हरा कर वह मिथिला का कितना नुकसान कर रहे हैं.
मिथिला और मिथिलावाद से धोखा किसने किया था.
नेहरूजी को कहाँ याद रहा की जिस कांग्रेस पार्टी का केवाला उन्होंने जबरिया अपने नाम कर लिया उस कांग्रेस पार्टी के स्थापना से लेकर आने वाले वर्षों में इस परिवार का क्या योगदान रहा था?
राज दरभंगा दो दैनिक समाचार पत्रों आर्यावर्त इंडियन नेशन का प्रकाशन किया करता था. इन दोनों अखबारों में मिथिला के मुद्दों को दमदार ढंग से रखा जाता था. इसे बंद करवाने का श्रेय किसे जाता है?
सरकार तिरहुत उर्फ़ राज दरभंगा को समाप्त करने का ऐसा हनक था की कामेश्वर सिंह के मृत्यु के बाद तीन चौथाई सम्पति महज कामेश्वर सिंह के डेथ ड्यूटी चुकाने में समाप्त हो गयी.

मिथिला में नेतृत्व की लगभग शून्यता ही रही जिसे कभी कभी कुछ खुश लोगों ने ख़तम करने की असफल चेष्टा की. बाबू जानकीनन्दन सिंह उस समय कांग्रेस के सशक्त नेता था. 1953 में कांग्रेस का अधिवेशन बंगाल के कल्याणी में होना निश्चित किया गया. बाबू जानकीनन्दन सिंह उस अधिवेशन में अलग मिथिलाराज की मांग उठाना चाहते थे. वह अपने समर्थकों के साथ कल्याणी कूच कर गए लेकिन उन्हें उनके समर्थकों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. उन्होंने एक नयी पार्टी मिथिला कांग्रेस की स्थापना की. उनकी आवाज को दबा दिया गया. जानकीनन्दन सिंह के खिलाफ जासूसी करने वाले कौन लोग थे?
धोखा किसने किया था?
डाक्टर लक्ष्मण झा मिथिलावाद की सशक्त आवाज थे. उनको पागल घोषित करने का दूषित अभियान चलाया गया. ऐसा करने वाले कौन लोग थे?
धोखा किसने दिया।
हम लोग बस अनुमान लगा सकते हैं की अगर ललित नारायण मिश्र जीवित होते थे तो आज के मिथिला का क्या स्वरुप होता। उन्हें शक था की उनकी ह्त्या कर दी जाएगी। उनकी ह्त्या कर दी गयी. कुछ आनंदमार्गियों को ह्त्या के आरोप में आरोपित कर मुकदमा चलाया गया. यह मुकदमा दशकों तक एकता कपूर के सीरियल की तरह चलता रहा. उस समय ललित बाबू की विधवा ने उनके अंतिम संस्कार पर व्यथित होकर कुछ कहा था. ललित बाबू को धोखा किसने दिया?
यही हाल कुमार गंगानंद सिंह का किया गया. उन्हें शिक्षा मंत्री बनाया तो गया लेकिन उन्हें कोई प्रसाशनिक अधिकार नहीं था.
पंडित स्व. हरिनाथ मिश्र मिथिला के एक सशक्त कॉंग्रेसी नेता थे. 1967 में कांग्रेस संगठन की ओर से चुनाव लड़ रहे थे. और उनके विरोध में कांग्रेस ने अधिवक्ता भूपनारायण झा को उम्मीदवार बनाया। हरिनाथ मिश्र को हारने के लिए इंदिरा गांधी खुद बेनीपुर चल कर आयीं थी। तब सुप्रसिद्ध मैथिली कवि काशीकान्त मिश्र मधुप ने एक कविता लिखी थी दुर दुर छिया छिया छिया हरि के हरबै ले एली नेहरूजी के धिया". राजीव गाँधी ने हरिनाथ मिश्र को कैसे दुत्कारा था यह शायद कम लोगों को पता होगा। मुख्यमंत्री विनोदानंद झा को ऐसे ही चलता कर दिया गया.
धोखाधड़ी के कितने उदहारण दूँ
कोसी नदी की विभीषिका मिथिला को बर्बाद करती रही. आजादी से पूर्व ब्रिटिश सरकार ने कोसी पर बाँध बनाने के लिए फंड निर्धारित किया। देश आजाद हुआ और कोसी बाँध का फंड पंजाब ट्रांसफर हो गया. इसका बहुत विरोध हुआ था. नेहरूजी तब कहा की सरकार के पास पैसे नहीं हैं इसलिए लोग श्रमदान से बाँध बना लें. भारत सेवक समाज की स्थापना हुई और लोगों ने श्रमदान कर बाँध बना भी लिया। जब पंडित नेहरू इसका उद्घाटन करने आये थे तब नाराज लोगों ने उन्हें सड़ा आम भिजवाया था.
1934 के भूकंप ने मिथिला को दो भागों में विभाजित कर दिया। सड़क, रेल और पुल संपर्क ध्वस्त हो गए. तो उन सत्तर सालों में क्यों केंद्र सरकार ने मिथिला के भौगौलिक एकीकरण के लिए कदम नहीं उठाया?
धोखा किसने दिया था?
मिथिला का एकीकरण सन 2003 अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के दौरान हुआ जब कोसी पर पुल निर्माण हुआ, ध्वस्त रेल लाइन के निर्माण की संस्तुति दी गयी. मैथिली को संविधान के आठवें अनुसूची में स्थान उन्हीं के कार्यकाल में मिला। लेकिन जब चुनाव हुए तो भाजपा मिथिला में बुरी तरह पराजित हुई. अगर अटलजी ने सचमुच में मिथिला के लिए ऐतिहासिक काम किया तो आपने उन्हें हराया क्यों?
धोखा किसने दिया था?
कभी मिथिला चीनी, कागज़ उत्पादन और पुस्तक प्रकाशन जैसे उद्योग का केंद्र हुआ करता था. आचार्य रामलोचन शरण का पुस्तक भण्डार और हिमालय औषधि केंद्र पुरे भारत में विख्यात था. इन दो संस्थानों को बर्बाद करने का श्रेय लदारी गाँव के निवासी और समाजवादी नेता कुलानन्द वैदिकजी को जाता है. बामपंथी नेता सूरज नारायण सिंह चीनी मिल को खा गए तो अशोक पेपर मिल को कामरेड उमाधर सिंह खा गए. बरौनी खाद कारखाना, पूर्णिया और फारबिसगंज के जुट मिल को बर्बाद करने का श्रेय बामपंथ को जाता है.
धोखा किसने दिया था?
1980 वही कॉंग्रेसी सरकार थी. जग्गनाथ मिश्र मुख्यमंत्री हुआ करते थे. लेकिन सरकार ने मैथिली के दावे को दरकिनार करते हुए उर्दू को द्वितीय राजभाषा बना दिया। तब किसी कॉंग्रेसी बामपंथी ने विरोध नहीं किया था. विरोध किया था तो RSS और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने. पूर्णिया में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् एक बड़ा आंदोलन किया था. आज जो समर्पित कॉंग्रेसी वह तथाकथित स्वर्णकाल ब्राह्मणों का वह स्वर्ण युग याद कर आर्तनाद कर रहे हैं वह बताएं की वह अपने निजी लाभ की कहानी बता रहे हैं या संपूर्ण मिथिला की.
धोखा किसने दिया था?
लालू प्रसाद सामाजिक न्याय के घोड़े पर सवार होकर आये. मैथिली उनके द्वेष का पहला शिकार बनी. मैथिली को BPSC और स्कूली शिक्षा से निकाल दिया गया. उस समय कौन से लोग मौन बैठे हुए थे? इस सरकार को किसका समर्थन था? लालू प्रसाद के राजनैतिक पुरोहित कौन थे?
इसके खिलाफ क़ानूनी लड़ाई ताराकांत झा ने लड़ी थी. लेकिन दुर्भाग्य की मिथिला के कांग्रेस नेताओं की तरह मिथिला के भाजपाइयों की जुबान नहीं थी. अब्दुल बारी सिद्द्की दरभंगा से चुनाव लड़ रहे हैं वह लालू प्रसाद के इस तानाशाही फैसले के साथ खड़े थे. और आज उन्होंने मैथिली में एक चुनावी पर्चा क्या जारी कर दिया की चमनजी मारे ख़ुशी के लोटपोट हो रहे हैं.
यह वही अली अशरफ फातमी हैं जिन्होंने मैथिली को संविधान के आठवें अनुसूची में शामिल करने के फैसले का प्रतिकार किया था. उस समय मिथिला के बामपंथी नेता अंदर ही अंदर इस पुरे अभियान का भट्टा बिठाने के लिए बिसात बिछा रहे थे.
पुरे मिथिला को इंडियन मुजाहिदीन का रिक्रूटमेंट ग्राउंड बना दिया और हम बेखबर रहे की कैसे हमारे बच्चों को जिहाद की आग में झोंका जा रहा है.
धोखा किसने दिया था?
नितीश कुमार भी उसी राह पर हैं.
कांग्रेस अपने कर्मों का फल भोग रही है. कारावास में लालू प्रसाद और यदुकुल में घमासान लालू प्रसाद के प्रारब्ध की शुरुवात है. नितीश कुमार को दैवीय संकेत मिल रहे हैं. भाजपा ने मिथिला के लिए कभी कुछ अच्छा किया था यही उसकी एकमात्र संचित निधि है. तय भाजपा को करना है की वह अपने लिए कौन सा प्रारब्ध चुनेगी।
यूँ बौद्धों की तरह ना कीजिये
मिथिला में बौद्ध भिक्षुओं स्थानीय लोगों के बीच जमकर खींचातानी होती थी जैसे कि आज गैर बीजेपी और बीजेपी समर्थकों के बीच बेमतलब की बतकही होती है।
यह बौद्ध भिक्षु भी चमन जी टाइप कुटिल हुआ करते थे। उदाहरण के रूप में मिथिला में बच्चों के शिक्षारम्भ के समय पंडित विद्वान बच्चों का हाथ पकड़ पर स्लेट पर आँजी का चिन्ह बनवाते थे। आँजी स्वातिक की तरह एक धार्मिक चिन्ह है जो गणेशजी की आकृति है। इसके साथ साथ सिद्धि और रस्तु लिखवाते थे।
फट से बौद्ध भिक्षुओं ने इस पर एक व्यंग बना दिया "आँजी सिद्धि रस्तु चूड़ा दही हसथु"
हसथु का मतलब हुआ दोनों हाथों से हसोथना।
अब इन बौद्ध भिक्षुओं ने हमारे भोजन के समृद्ध परंपरा पर प्रहार किया तो जवाब तो देना ही था।
यह बौद्ध भिक्षु शिक्षा का आरंभ ओम नमः सिद्धम से करते थे। मैथिलों ने भी ऐसा पैरोडी बनाया की भंते चमनजी छिलमिला गए। यह ऐसा था "ओना मासी धं गुरुजी चितंग"
एक थे कुमारिल भट्ट उन्हें प्रछन्न बौद्ध कहा जाता है। वह दिन में पौधों के बीच बौद्ध मठ में बुद्धिज़्म की पढ़ाई करते थे और रात में अपने घर में बुद्धिज्म के खंडन मंडन का सूत्र लिखते थे।
मैथिलों ने लड़ाई का दूसरा तरीका भी अपनाया। महात्मा बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित कर दिया गया और कहीं कहीं बुद्ध की पूजा एक विशेष रीति से की जाने लगी। बतौर बुद्ध की मूर्ति पर लोग कंकड़ पत्थर फेंक कर पूजा करते थे। इसलिए बुद्ध को लोग ढेलमारा गोसाइँ भी कहते हैं और कालांतर मिथिला में ढेलमारा गोसाइँ एक मुहावरा बन गया।
उस समय की लड़ाई में तो कुछ रचनाधर्मिता भी थी और आज तो कभी रचनाधर्मिता के लिए पहचान बना चुके हुलेले हुलेले कर रहे हैं।
मोदी केदारनाथ जायें या बद्रीनाथ,आपको क्या पड़ी हुई है। राहुल गांधी भी नानी गाँव जायें किसी ने रोका है क्या।
वह तप करें फकीर बनें या पुनः प्रधानमंत्री बनें विधाता ने जो तय किया है वही होगा। आपके आप कोई दूसरा काम नहीं है? और आपको क्या लगता है कि आपके पोस्ट को विधाता पढ़ते हैं। आपका भी मन करता है तो राहुल गांधी आपका मन रखने के लिए वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश कर जायें। संविधान में मूल कर्तव्य वाला भी चैप्टर है कभी उस पर भी दया कीजिये और ये बौद्धों की तरह हरकत बन्द कीजिये।
#पुस्तकालय और मेरा गांव
Vijay Deo Jha के गाँव कविलपुर में कभी एक पुस्तकालय हुआ करता था जिसकी स्थापना 1940 में हुई थी। आज पुण्यानन्द झा की लिखित पुस्तक मिथिला दर्पण पर अपने गाँव के पुस्तकालय का सील मोहर देखा। नाम था साहित्य पुस्तकालय। यह पुस्तक बाबुजी को बतौर पुरस्कार के रूप में दिया गया था।
साहित्य पुस्तकालय की स्थापना पठन पाठन को बढ़ावा देने और राष्ट्रवादी भावना को प्रचारित प्रसारित करने के लिए की गई थी इसलिए अंग्रेज बहादुर की नजर इस पुस्तकालय पर बनी रहती थी। इसकी स्थापना हमारे पुरखे पंडित हरिनारायण झा, पंडित उमाकांत झा उर्फ उमा बाबु, पंडित शिलानाथ झा उर्फ शिलाई बाबा, बाबु उमाकांत दास और बाबु राधाकांत दास जैसे लोगों ने की थी। यह पुस्तकालय शिलाई बाबा के दालान पर चलता था।
इस गाँव से एक दिलचस्प आंदोलन जो राष्ट्रीय स्तर तक फैल गया था उसकी शुरुआत हुई थी।संभवतः आजादी के बाद यह अपने आप में एक अनूठा आंदोलन था जो अश्लील साहित्य के खिलाफ था। इस आंदोलन की शुरुवात मेरे गाँव कविलपुर से सन 1955 के समय में हुई थी जो बाद में देश के अन्य हिस्सों में भी फैल गयी।
1955 में हमारे पण्डित हरिनारायण झा जो पुस्तकालय का देखरेख किया करते थे ने अश्लील साहित्य के खिलाफ अभियान शुरू किया।
उन्होंने सार्वजनिक जगह पर अश्लील साहित्य को जलाने का अभियान शुरू किया और देखा देखी दरभंगा जिला और बिहार के अन्य हिस्सों में इस अभियान की आँच महसूस की जाने लगी। दरभंगा कमला नेहरू पुस्तकालय में एक बहुत बड़ी सभा हुई थी और इस अभियान को देश के अन्य हिस्सों में शुरू करने का फैसला लिया गया।
उस समय कुशवाहा कांत, प्यारेलाल आवारा और यशपाल तथाकथित अश्लील साहित्य में चर्चित नाम थे। उस समय पूरे देश से हजारों साहित्यकारों जिसमें किशोरीदास बाजपेयी जैसे लोग शामिल थे, ने हमारे गाँव के पुस्तकालय को पत्र लिखकर इस आंदोलन को समर्थन दिया था।
इस बारे में एक खबर निर्माण पत्रिका में छपी थी। लेकिन 1980 के दौरान यह पुस्तकालय बंद हो गया और इसकी किताबें बर्बाद हो गई क्योंकि प्रबंधन पर एक अयोग्य ने कब्जा जमा लिया। इसका समृद्ध संग्रह पंसारी की दुकान पहुँच गया। अब आप अधिक पूछेंगे की इस पुस्तकालय को किसने बर्बाद किया तो मुझे नाम बताना पड़ेगा नाम बता दूँगा तो गोतिया वाली लड़ाई शुरू हो जाएगी इसलिए यही तक रहने दीजिए।
यह पोस्ट लिखते वक्त मेरे जेहन में मेरे एक बालसखा घूम रहे थे जिनसे दुखी होकर मैंने तात्कालिक रूप से संबंध विच्छेद कर लिया। वजह थी उनके द्वारा हर वक्त मेरे गांव पर अनुचित टिप्पणी करना। मेरी यह प्रवृत्ति रही है कि अगर किसी गांव में कभी कोई योग्य, विद्वान, संत प्रवृत्ति का व्यक्ति जन्म लिया हो तो उस गांव की मिट्टी को माथे पर लगाने में मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ। मगर मेरे मित्र को मेरे इस संवेदनशीलता का एहसास कभी नहीं हुआ। खैर जाने दीजिए जाकी रही भावना जैसी
शायद कभी मुंशी प्रेमचंद्र ने कहीं पर लिखा है कि राजमार्ग और रेलवे स्टेशन के किनारे बसे गांव के लोग अजीब होते हैं। वैसे संपूर्ण मिथिला ही अजीब है। अच्छे बुरे का हमेशा चक्र चलता रहता है। अगर आपको अपना स्वर्णिम इतिहास स्मरण है तो वह इतिहास पुनः पलट कर वापस आएगा। पुराण में सरस्वती नदी की चर्चा है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह सूख गई। लेकिन वह नदी भूमि के अंदर बहती रही। मेरे गाँव से माता सरस्वती कभी गई नहीं। कुछ घरों के मोह ने उन्हें बांध लिया था और फिर समय आया माता सरस्वती पुनः जिह्वा पर विराजमान हो गयी।
कविलपुर का एक विशद इतिहास रहा है। रिसर्च करने बैठिए तो कबीर के अध्यात्म से लेकर ओईनवार और खण्डवला कुल की कहानी, स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई, लोककला चित्रकला यही मिल जाएगा।
खट्टारकाका की डायरी से
आज भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा है। भगवान जग्गनाथ मैथिल से हमेशा चौकन्ना रहते हैं पता नहीं कब कोई तेजस्वी मैथिल उनसे हुज्जत कर ले, डांट दे कि अधिक काबिल मत बनिये।
"ऐश्वर्य मद मत्तोऽसि मामवज्ञाय वर्तसे,
उपस्थितेषु बौद्धेषु मदधीना तव स्थिति:।। "
मिथिला के करियन ग्राम के 9वीं सदी के प्रसिद्ध नैयायिक उदयनाचार्य का इतिहास जरूर पढ़ना चाहिए। इन्होंने मिथिला में पैर जमा रहे बौद्धों को खदेड़ कर गंगा पार भगा दिया। उदयनाचार्य ने मिथिला में फ़ैल रहे बौद्ध धर्म और नास्तिकता को अपने तर्क, बुद्धि से समूल विनाश कर दिया।
एक बार उदयनाचार्य जगन्नाथ पुरी भगवान के दर्शन करने पहुंच गए। रात्रि हो चुकी थी और मंदिर का पट बंद हो चुका था. उदयनाचार्य ने पुजारी से कहा की पट खोलो मुझे प्रभु जगन्नाथ के अभी दर्शन करने हैं. जब पुजारी ने ऐसा करने से मना कर दिया तो उदयनाचार्य ने मंदिर के सामने ही प्रभु जगन्नाथ को चुनौती देते हुए कहा.
"ऐश्वर्य मद मत्तोऽसि मामवज्ञाय वर्तसे,
उपस्थितेषु बौद्धेषु मदधीना तव स्थिति:।। "
"हे जगन्नाथ ऐश्वर्य के मद में आपका इतना भी अभिमान करना उचित नहीं। जब निरीश्वरवादी बौद्ध आपका विनाश कर रहे थे तब मैंने ही आपको बचाया था."
किंवदंती है की प्रभु जगन्नाथ ने मुख्य पंडित को स्वप्न में आदेश दिया की उदयनाचार्य के लिए पट खोल दिया जाए और फिर उदयनाचार्य ने मध्य रात्रि में भगवान् का दर्शन किया।
अब दूसरी कहानी। आज भी मिथिला के घुसौथे मूल ( घुसौथे मिथिला का एक प्राचीन ग्राम है) के ब्राह्मण या गाँववासी जगर्नाथपुरी दर्शन के लिए नहीं जाते। कारण जानना हो तो 16वीं सदी का इतिहास पढ़ लीजिये। इस गाँव के प्रसिद्द नैयायिक पण्डित गोविन्द ठाकुर जगर्नाथपुरी की तीर्थयात्रा पर गए। वहाँ पंडों ने उन्हें अटका (प्रसाद खिला दिया). अब गोविन्द ठाकुर जिद कर बैठे की वह बिदाई में धोती लिए बिना नहीं जायेंगें। उन्होंने तर्क उपस्थित किया की वह मिथिला से हैं और विष्णु भगवान् का ससुराल मिथिला है। मिथिला में परंपरा रही है की जब विवाह संबंधों में बंधे दो परिवार जब पहली बार एक दूसरे को अपने यहाँ सिद्ध भोजन ग्रहण करने के लिए आमंत्रित करते हैं तो बिदाई भी देनी होती है। गोविन्द ठाकुर धरने पर बैठ गए। आजिज होकर भगवान् जगरनाथ ने पंडों को स्वप्न में आदेश दिया की इस व्यक्ति को दो जोड़ी धोती देकर बिदा करो और कह दो की यह फिर यहाँ कभी न आये। उसके बाद से आजतक घुसौथे मूल के मैथिल जग्गनाथपूरी नहीं जाते हैं।
हम मैथिल पुरातन काल से भगवान विष्णु, भोलेनाथ को साधिकार ट्रोल कर दिया करते हैं।
आज राँची में भगवान जग्गनाथ के ऐतिहासिक मंदिर के प्रांगण में भगवान का रथ खींचा जा रहा है। एक दो दिन बाद मैं भी जाऊँगा।
एक बार मैंने एकांत में मंदिर में प्रभु का दर्शन किया था। जब मुख्य पुजारी को बताया कि मैं मिथिला से हूँ तो पुजारी महोदय हें हें कर हँसने लगे कि आप लोग इस ब्रह्मांड के सुपरलेटिव प्राणी हैं जो भगवान को भी दो चार सुना देते हैं। यह सब सौभाग्य मिथिला के लोगों को ही मिलता है। I am proud Maithili. जय भगवान जग्गनाथ जय हुज्जते मिथिला।
मैथिली के शलाका पुरुष, संस्कृत व बँगला के विद्वान् पंडित सुरेंद्र झा 'सुमन' महज क्लासिकल ट्रेडिशन के कवि नहीं थे. उन्होंने सन 1969 में मानव के चन्द्रमा पर प्रथम अवतरण पर भी कविता लिखी थी जो उनके कविता संग्रह अंकावली में प्रकाशित हुई थी. अंकावली दरअसल भारतीय वाङ्गमय और विज्ञान पर आधारित अद्भुत कविता संग्रह है. किस अंक पर वैज्ञानिक, दर्शन व अध्यात्म की कौन सी बातें प्रसिद्द हैं उसका काव्यात्मक वर्णन इस संग्रह में है.
कविता में भाषा, भाव और विषय पर सुलभ अधिकार प्राप्त कर लेना यूँ ही संभव नहीं है. इसके लिए पढ़ना पड़ता है तब जाकर कोई विद्वान् साहित्यकार होने की सिद्धि प्राप्त होती है. लेकिन जबरदस्ती के खाद पानी पर पुष्पित पल्ल्वित हो रहे मैथिली के नव साहित्यकार जो सोंगर के सहारे सूर्य को छूने की कोशिश करते हैं उन्हें मैथिली के विशाल वाङ्गमय के गहन अध्ययन और अनुशीलन में कोई रूचि नहीं है या फिर यह सब उनके समझ से बाहर है.
अंग्रेजी क्रिटिसिज्म में हमें Three Essay of TS Eliot पढ़ाया जाता था. यह Eliot के प्रसिद्ध Minnesota address व अन्य का संकलन है जिसमें उनके कुल तीन विद्वत भाषण को संकलित किया गया था क्रमशः Tradition and the Individual Talent, The Frontiers of Criticism और The Function of Criticism.
Eliot मेरे लिए अबूझ पहेली रहे. Tradition and the Individual Talent कवि, साहित्यिक परम्परा, साहित्यिक सृजन और कवि के व्यक्तित्व पर लिखा गया अब तक का सबसे मानक लेख है. जब बात समझ में नहीं आयी की कवि को साहित्यिक परम्परा के साथ चलना चाहिए या उसे अपने Individual Talent की ओर झुकना चाहिए तो यह यक्ष प्रश्न गुरुवर शंकरानन्द पालित सर के सामने उपस्थित किया।
गुरुदेव ने सरल भाषा में एक पंक्ति में पुरे लेख का सार बता दिया।
"अब बताईये की अगर ताजमहल के सामने एक झोपड़ी खड़ा कर दिया जाए तो ताजमहल की सुंदरता बनी रहेगी, घटेगी या बढ़ेगी। आप मान लीजिये की आगरा शहर के कलक्टर हैं तो क्या करेंगें।"
इस अकादमिक प्रश्न का जबाब मैंने ऐसे दिया: "मैं तत्काल इस झोपड़े को हटा दूँगा और उस आदमी को चालान कर दूंगा।"
उनका जबाब था "बिन ट्रेडिशन को समझे पढ़े Individual Talent बेकार है. ऐसी कोई भी रचना कालजयी नहीं हो सकती हैं. यह अकाल मृत्यु को प्राप्त होगी।"
सो हे नव पौध झाड़, घास पैदा करने से बेहतर है साहित्य की धारा को समझें। Eliot का लेख अंग्रेजी में दुरूह लग सकता है तो इसका हिंदी अनुवाद पढ़ें।
मेरा साहित्य कालजयी है वाली आत्ममुग्धता से निकलें।
ऐसा है की 'रेख्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब,
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था।
किताब की आधी स्कैनिंग आज संपन्न हुआ और कल उसे पूरा कर लूंगा।
नोट: अपने समय में हम भी पढ़ने लिखने में डाकू थे.
#खट्टर_काका_की_डायरी_से
कोशी और गंडक नदी के बहाव क्षेत्र में निरंतर बदलाव के कारण मिथिला का एक बड़ा भूभाग सारण, बंगाल व अन्य प्रांतों में चला गया. सोनपुर के साथ भी यही हुआ. सोनपुर का एक बड़ा हिस्सा कभी मिथिला का भाग था जो गंडक के बहाव क्षेत्र में बदलाव के कारण सारण का एडमिनिस्ट्रेटिव पार्ट बना दिया गया. सोनपुर मिथिला की सीमा थी.
मिथिला के पुराने लोकगीतों पर ध्यान दीजिये जिसमें मिथिला के सीमा की चर्चा है.
"बाबा हरिहरनाथ सोनपुर में रंग लुटय" एक प्रसिद्द होली गीत है. बाबा हरिहरनाथ के मंदिर में एक शालिग्राम स्थापित हैं. किवदंती है की गंगा और गंडक के मुहान पर गज और ग्राह की लड़ाई हुई थी. दोनों पशुओं ने अपने अपने इष्टदेव का स्मरण किया। हरि (विष्णु) और हर (महादेव) ने गज और ग्राह का समझौता करबाया और इस मित्रता के निमित एक मंडिल (मिथिला में मंदिर को बहुधा मंडिल कहा जाता है) हरि-हरनाथ का निर्माण कराया गया. कालक्रम में अन्य मंदिर भी बने यथा पंचदेवता मंदिर व कालीस्थान मंदिर। 1850 के दौरान एक बृद्ध गुजराती महिला संभवतः उसका नाम रानी था यहाँ रहने लगी और मंदिरों का देखरेख करती थी. सोनपुर का मेला आयोजन इसी हरिहरनाथ प्रक्षेत्र में प्रारम्भ हुआ. यह मेला पहले गंडक नदी के इस पार तिरहुत के हाजीपुर में लगता था. यह स्थिति सन 1800 तक रही. मगर कालक्रम में वह विशाल भूखंड जिस पर मेला का आयोजन हुआ करता था गंडक नदी के कटाव के कारण नदी के प्रवाह क्षेत्र में विलीन हो गया. कालांतर इसका आयोजन गंडक नदी के दूसरे किनारे पर होने लगा.
यह बातें मैं नहीं कह रहा हूँ. ब्रिटिश सरकार के गजट में इसकी चर्चा है. हैरी अबॉट के द्वारा संकलित 327 पेज की सूचनाओं को पढ़ लीजिये। जिनको मिथिला के लिंगविस्टिक और टेरिरोटिअल बाउंड्री पर शक हो वह पहले अपनी मरौसी और बपौती जमीन का नापी खाता खतियान का जानकारी रखें।
खट्टर काका की डायरी से
देवघर के बाबा वैद्यनाथ मंदिर में शिवरात्रि और श्रावणी मेला का पुनरारंभ सन 1647 के आसपास मैथिल ब्राह्मणों ने किया था. इस मंदिर में पूजापाठ व धार्मिक मेला का इतिहास दसवीं सदी से मौजूद है. लेकिन बाद के क्रम में हुए मुसलमानी आक्रमण मंदिर के दुरूह भौगौलिक स्थिति के कारण मंदिर लगभग निर्जन व खंडहर बन गया. मंदिर का पुनरोद्धार व मेला का प्रारम्भ वहाँ के स्थानीय मैथिल ब्राह्मणों ने किया। यह मैं नहीं कह रहा हूँ. 1847 में छपे ईस्ट इंडिया के गजट में इसकी चर्चा है.
आदि काल से मैथिल ब्राह्मण ही बाबा वैद्यनाथ के मंदिर में पूजापाठ करवाते रहे हैं जिन्हें बोलचाल की भाषा में पण्डा कहते हैं. यह टाइटिल की जगह अपना मूल लगाते हैं जैसे खवारे, पालिवार। मूल वस्तुतः मैथिल ब्राह्मणों के गाँव का नाम होता है जहाँ से पुरखे दूसरी जगह माइग्रेट हुए. मूल वाली प्रथा मिथिला से बाहर और कहीं नहीं पायी जाती है. इन्हें अपने जजमानों का जेनिओलॉजिकल रिकॉर्ड कंठस्थ होता है.
पचास दशक में यह बहुत बड़ा हंगामा हुआ था. आचार्य बिनोबा भावे ने अकस्मात् दलितों के बाबा वैद्यनाथ मंदिर प्रवेश आंदोलन की घोषणा कर दी. कुछ दलितों के साथ वह मंदिर प्रवेश करने के लिए आये. पण्डों को यह बात चुभ गयी की जब शिव के मंदिर में कोई जातिगत निषेध नहीं है तो बिनोबा भावे क्यों सौहाद्र विगाड़ रहे हैं। पण्डे भी अड़ गए कि बिनोबा भावे को अब किसी भी कीमत पर किसी भी जातिगत समूह के साथ मंदिर में प्रवेश नहीं करने देंगें। पत्थरबाजी हुई बिनोबाजी व अन्य को चोट लगी। 22 पण्डे गिरफ्तार हुए। उसके एक सप्ताह के भीतर तत्कालीन बिहार के मुख्यमंत्री कृष्ण सिंह मंदिर प्रवेश अभियान शुरू करने के लिए खुद पधारे। विनोदानंद झा जो सम्भवतः राजमहल से विधायक थे और बाद में बिहार के मुख्यमंत्री भी बने वह भी मामले को सुलझाने के लिए आ गए। उस समय देवघर के धर्मरक्षिणी सभा की मीटिंग हुई जिसमें प्रस्ताव पारित हुआ कि इस मंदिर में किसी भी सनातन धर्मावलंबी के प्रवेश पर ना कभी निषेध था और ना कभी रहेगा यह की शिव के मंदिर में कभी भी जाति आधारित विभेद नहीं किया जाता है। पंडो ने कहा कि वह इस बात का जरूर खयाल रखते हैं की श्रद्धालु मंदिर प्रांगण में नियम निष्ठा और शुद्धता का पालन करें।
हालांकि तब इस बात को खूब प्रचारित किया गया था कि इस मंदिर में जातिगत भेदभाव किया जाता है।
मतलब बेमतलब का हंगामा खड़ा हुआ था।
#खट्टरकाका_की_डायरी_से
आधुनिक मैथिली साहित्य के सर्वाधिक लोकप्रिय और युगान्तरकारी साहित्यकार, विशुद्ध मिथिलावादी, मिथिला पुनर्जागरण यज्ञक अग्रगामी होता व्यंग्यसम्राट प्रो. हरिमोहनझा का आज जन्मदिन है (18सितम्बर1908,जितिया दिन). मैथिल इतने कृतघ्न हैं की इन्हें पढ़ते जरूर हैं लेकिन इन्हें न कभी स्मरण करते हैं ना कभी कृतज्ञता जाहिर करते हैं.क्यों करेंगें? वह कोई वामपंथ के झण्डावदार तो थे नहीं। यदि होते तो वामपंथ का ढोलहो पीटने वाले इनके नाम पर महोत्सव करते । मगर हरिमोहन झा तो साहित्य के माध्यम से मिथिला के ध्वजावाहक का कार्य कर रहे थे. आज के छद्म मिथिलावादी क्यों उन्हें स्वीकार करें। पाखण्ड पर प्रहार करने वाले हरिमोहन झा के साहित्य में लालसलामी का गन्ध नहीं था जो बात वामपंथ के प्रचारकों को कभी अच्छा नहीं लगा क्यों की उनके आकाओं को भी हरिमोहन झा पसंद नहीं थे। जो कुछ तथाकथित दक्षिणपंथी किंवा राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थक हैं वह आज भी नाबालिग और बालगोविंद ही हैं । आपको जिनका ढोल पीटना हो पीटें महोत्सव करें हरिमोहन बाबू को आप आज भी पाठक के हृदय में बसते हैं उनके जन्ममास के अवसर पर उनकी प्रथम प्रकाशित कृति 'अजीब बन्दर का आवरण प्रतिच्छवि प्रस्तुत कर रहा हूँ जो सन 1925 में दरभंगा से प्रकाशित हुआ था जब वह महज सोलह वर्ष के थे.
खट्टर काका वही थे जिन्होंने सत्तर साल पहले सनातन धर्म, सनातन ग्रन्थ और प्रथाओं का धागा खोलना शुरू कर दिया था । हरिमोहन झा आज भी उतने ही लोकप्रिय क्यों हैं? क्यों उनकी रचनाओं के पीछे आप पागल रहते हैं? क्या आप इसलिए पढ़ते हैं की उनकी रचनाएँ हास्य से सराबोर हैं और पढ़ कर आप हँसी से लोटपोट हो जाते हैं? आपको क्या लगता है की दर्शन शास्त्र का यह उद्भट विद्वान् मैथिली साहित्य एक मसखरा है जिसका उद्देश्य आपको हँसाना भर था. हरिमोहन झा एक अद्वितीय सर्जक और मूर्ति भंजक भी थे. इस अद्भुत तर्कवादी ने हरेक सिद्धांत और मान्यतों का तर्क सहित खंडन मंडन कर दिया और उनके तर्क का कोई काट नहीं था.
इस देश में मूर्खता के कारण कौन? पंडित
असली ब्राह्मण कहाँ रहते हैं? यूरोप अमेरिका में
वेदकर्ता नास्तिक थे
वेद पुराण श्रवण करने से स्त्रियों का स्वभाव खराब हो जाएगा
गीता पाठ करने से फौजदारी मामलों में बृद्धि हो जाएगी
आयुर्वेद महज काव्य है
दही चूड़ा चीनी से सांख्य दर्शन निकला
सोमरस भाँग है
भगवान् राम अस्थिर मति के दुर्बल पुरुष थे
भगवान् को पेंसन लेकर बैठ जाना चाहिए
महादेव मैथिल थे
रामायण का आदर्श चरित्र कौन? रावण
सभी देवताओं में तेज कौन? कामदेव
स्त्री जाति में सर्वश्रेष्ठ कौन? वारांगना
दर्शन शास्त्र की रचना रस्सी को देख कर हुई
स्वर्ग जाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है
उस समय भी उन्हें नास्तिक, परंपरा विरोधी, धर्मविरोधी, पश्चिमी सभ्यता का अनुगामी कह कर उन्हें प्रताड़ित किया गया था. जनवरी 1954 से नवम्बर 1954 तक मिथिला मिहिर में खट्टर काका को टारगेट कर उनको प्रताड़ित किया गया. विरोधियों के पास कोई तर्क नहीं था सिवाय यह की उनकी भावना आहत हुई है. मिथिला में धर्म और अध्यात्म को तर्कों की कसौटी पर जांचा परखा जाता रहा है. अगर सिर्फ मनोरंजन के लिए हरिमोहन झा को पढ़ते हैं तो उनको पढ़ना बंद कर दीजिये।
अगर आज हरिमोहन झा जीवित होते तो पता नहीं साहित्य के नाम पर मैथिली में जमा हो रहे कूड़े के अम्बार पर क्या सब लिखते। लंपट तत्वों से घिरे मैथिली साहित्य के मोक्ष के लिए क्या करते।
एक अंग्रेज़ कर्नल थे जेकॉब साहेब उन्हें संस्कृत साहित्य में प्रचलित लोकोक्ति के संग्रहण और अर्थ निर्धारण का बड़ा शौक था और उन्होंने एक किताब भी छापी थी. इस पुस्तक में एक 'वधुमाषमापनन्याय' की चर्चा है. इस लोकोक्ति का उद्गम मिथिला में है. और यह आपको आत्मविवेक ग्रन्थ में भी मिल जाएगा। एक ब्राह्मण थे स्वभाव से थे थोड़े कंजूस। मगर उनकी पत्नी थी उदार ह्रदय की और उनकी मुट्ठी भी बड़ी थी सो जो कोई भी याचक दरवाजे पर आता था वह उसे अपनी बड़ी मुट्ठियों से भर भर कर अन्न देती थी. पंडितजी चिंतित रहते थे की ऐसे में पंडिताइन पुरे घर का अन्न खत्म कर दे रही है. पंडितजी के पुत्र की शादी हुई पुत्रवधु अतीव सुन्दर थी. पंडितजी ने देखा की पुत्रवधु की मुट्ठी छोटी है. उन्हें विचार आया की क्यों ना पंडिताइन के बजाय पुत्रवधु से याचकों को अन्न देने के लिए कहूं क्योकि इसकी छोटी मुट्ठी में कम अन्न आएगा।
अब पंडिताइन के बजाय पुत्रवधु अन्न देने लगी. मुट्ठी छोटी तो हो गयी लेकिन याचकों की संख्या में अप्रत्याशित बृद्धि हो गयी. कारण इलाके के भिखारी इस सुन्दर महिला के बहाने भीख मांगने के लिए आने लगे.
अब मूल कथा पर आईये।
बचपन से ही मैं शास्त्रों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया करता था और शास्त्रों से प्राप्त अनमोल सीख को व्यबहारिक जीवन में उतारा करता था.
कल्पना कीजिये की आपके रसोई में ढेर सारा पुआ पकवान बना हुआ. माताजी या मालकिन ने रसोई की खिड़की तो खोल रखी है लेकिन दरवाजे पर ताला लगाया हुआ है. अब आपको पुआ खाना है तो क्या करेंगें।
प्राचीन काल के मीमांसकों ने इसका एक सुलभ उपाय बताया हुआ है जिसकी व्याख्या 'दंडपूपन्याय' के अंतर्गत किया गया है. दंड का अर्थ हुआ डंडा और पूप का अर्थ हुआ पुआ. डंडे के सहारे पुआ नामरूपी पकवान के साथ कैसे न्याय करें।
इतना बड़ा डंडा लें जो पुआ तक पहुँच सके डंडा के अग्र भाग को नुकीला करें। खिड़की से अंदर डंडा पुआ तक ले जाएँ और इसे इसे पुआ में गड़ा कर निकाल लें और इसके स्वाद का आनंद लें.यह काम में बचपन में खूब किया करता था.
इसी प्रकार का न्याय भाईजी Krishna Deo Jha और मामा शंभूनाथ मिश्र किया करते थे. दोनों ही अपने समय क्रिकेट के बड़े शौकीन थे. नानाजी के पास रेडियो था. हमारे ननिहाल का मकान एक बंगले टाइप का था जहाँ कमरे की दिवार छप्पड़ तक नहीं होती थी. नानाजी क्रिकेट के भयानक विरोधी और मामाजी और भाईजी क्रिकेट के इतने ही बड़े शौक़ीन। तो नानाजी के स्कूल चले जाने के बाद ये दोनों रेडियो को कमरे से बाहर लाने के लिए 'दंडरेडियोहुकन्याय' प्रयोग करते थे. डंडे में हुक लगाया और रेडियो को लिफ्ट कर लिया। नानाजी के आने से पहले पुनः रेडियो को हुक में फंसा उसी जगह रख देते थे.
नानाजी भी ठहरे नैयायिक उन्हें आभास हो गया की कुछ रेडियो के साथ कुछ ना कुछ दंडपूपन्याय हो रहा है. अब स्कूल जाने से पहले वह रेडियो के चारो तरफ चॉक से निशान बना देते थे ताकि पता चल सके की रेडियो अपने स्थान पर था या नहीं। एकदिन नानाजी ने रेडियो को पतले रस्सी से बांध दिया। आगे अब यही दोनों बताएंगें की इन लोगों ने इसका क्या तोड़ निकाला।
मेरा वाले न्याय पर तो बतौर शोध किया जा सकता है. अगर अपने बच्चों को इनोवेटिव बनाना हो कुशाग्र बनाना हो तो मेरी कहानी उन्हें जरूर पढ़ाएं।
मुझे दुग्ध पदार्थ का शौक है. छाल्ही (दूध का मलाई), दही दूध जो मिले जितना मिले सब उदरस्थ, ख़ास कर मुझे छाल्ही का शौक था. मेरे रहते मेरे घर के आसपास कोई बिल्ली नहीं आती थी.
माँ इससे सबसे अधिक परेशान रहती थी. मैं मध्य रात्रि में उठकर मिटकेस में रखा दूध पी जाता था. परेशान माँ ने मिटकेस में ताला लगाना शुरू किया। दो तीन दिनों तक बहुत परेशानी हुई लेकिन मैंने इसका उपाय ढूंढा। मिटकेस में लगे लोहे के जाल में एक छोटा सा सुराख़ किया। उसके अंदर पाइप डाली और उसे दूध के वर्तन में डाला। अब मलाई ऊपर टिका हुआ है और दूध गायब। इसे 'दुग्धपाइपन्याय' कहा जाता है जिसकी मैंने खोज की थी.
कानूनन माँ साबित नहीं कर सकती थी की मैंने दूध पिया है. अब माँ दूध के वर्तन पर थाली रख उसके ऊपर कोई भारी सामान रख देती थी. इसका भी तोड़ मेरे पास था लेकिन इसका जिक्र नहीं करूंगा क्यों की अगर आपके बच्चे मुझसे प्रभावित हो गए तो आपके पास कोई रास्ता नहीं होगा।
मेरे उत्पात से तंग होकर माँ लकड़ी के संदूक में नष्ट न होने वाले खाने पीने का सामान रखती थी जिस पर ताला लगा होता था. मैं संदूक का कब्जा खोल कर सारा माल चम्पत कर देता था.
एक बार एक सज्जन जूस के एक बोतल उपहार में लाये। माँ से गुजारिश की कि मुझे चखा दो लेकिन माँ ने मना कर दिया। उसमें ढक्कन वैसा ही लगा हुआ जो सॉफ्ट ड्रिंक की बोतल में होता है जिसे आप बोतल ओपनिंग की से खोलते हैं. सामने रखा जूस का बोतल मुझे चुनौती दे रहा था की हिम्मत है तो खोल कर देख. खोल नहीं सकते थे क्यों की एक बार ढक्कन खुला तो बंद नहीं होगा।
उसका भी तोड़ था मेरे पास. मैंने आलपिन से ढक्कन में एक सूक्ष्म सुराख़ किया। मैं सुराख़ के माध्यम से बोतल के अंदर जोर से हवा भरता था और झटके से पलट दिया करता था. हवा के दबाब से वह जूस बाहर निकल मेरे जिह्वा को आह्लादित करता था. दस दिनों के भीतर बंद ढक्कन बोतल से जूस गायब। मैंने बचपन में इस प्रकार की कई लीलाएं की हुई हैं जो अब लुप्तप्राय हो गयी हैं.
तीन दिन पहले एक अनुज ने दरभंगा मधुबनी के तत्कालीन समाजवादी नेता कुलानंद वैदिक के बारे में जानकारी चाही।
अव्वल वैदिकजी के संतति के पास भी उनके बारे में कोई खास जानकारी नहीं है।
मुझे जो कुछ पता है वह यह कि लहेरिया सराय (दरभंगा) में अवस्थित पुस्तक भंडार भारत के कुछएक प्रसिद्ध पर पब्लिशिंग हाउस था जिसके करीब एक हजार से अधिक कर्मचारी हुआ करते थे। इस पब्लिकेशन हाउस की शुरुआत प्रसिद्ध मिथिला प्रेमी रामलोचन शरण ने की थी।
व्यंग सम्राट हरिमोहन झा से लेकर कई नामी लेखक इस पब्लिकेशन हाउस की उपज थे। पुस्तक भंडार का दफ्तर और लहेरिया सराय उत्तर भारत के साहित्यकारों का अड्डा हुआ करता था।
सन 1947 के नवम्बर में वैदिकजी ने पुस्तक भंडार की पिकेटिंग कर दी। महीनों धरना प्रदर्शन और लॉक आउट जारी रहा।

हमारे गाँव में दर्जनों पुस्तक भंडार के कर्मचारी थे जैसे रामबुझावन झा, रामचरित्र झा, भुनेश्वर झा उर्फ भुने बाबा। ये लोग मँजे हुए कंपोजीटर थे।
आन्दोलनकारियों पर मुकदमे हुए। इस आंदोलन में हमारे एक चाचा जो बाबुजी के बड़े चचेरे भाई स्वर्गीय देवनारायण झा भी शामिल थे जो पुस्तक भंडार के कर्मचारी थे।
बहुत सारे लोग गिरफ्तार हुए जिसमें देवनारायण झा भी शामिल थे। पितामही ने बताया था कि दादाजी 1948 के जनवरी महीने में उनकी जमानत करवा कर वापस लाये थे।
जेल के अंदर ही उनको समाजवाद और साम्यवाद की ट्रेनिंग दे दी गयी। जेल से बाहर वह वह मुट्ठी बांध कर लाल सलाम करते थे। उनकी भी नौकरी गयी लेकिन उन्हें गर्व की अनुभूति थी कि उन्होंने इतना बड़ा विशाल पब्लिशिंग हाउस बन्द करवा दिया।
अंततः रामलोचन शरण ने लहेरिया सराय में पुस्तक भंडार का कारोबार काम काज बन्द कर दिया और पुस्तक भंडार पटना स्थानांतरित कर दिया गया। इसके साथ साथ हिमालय आयुर्वेद भवन भी पटना स्थानांतरित कर दिया गया। लेकिन पुस्तक भंडार और आयुर्वेद भवन इस झटके से कभी संभल नहीं पाए।
रामलोचन शरण जिन्होंने अपना जीवन मिथिला मैथिली और सहित्य को समर्पित कर दिया था यह धरना प्रदर्शन और तालाबंदी अंदर से आहत कर गयी।
उन्होंने केस मुकदमा लड़ने तक से इंकार कर दिया।
लहेरिया सराय में पुस्तक भंडार का दफ्तर वीरान हो गया वह अब साहित्य का मुर्दाघर बन गया था।
पटना में पुस्तक भंडार की वह रौनक नहीं रही जो लहेरिया सराय में हुआ करती थी। यद्यपि रामलोचन शरण और उनके पुत्र इसे मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर समझ चलाते रहे लेकिन क्या दुर्भाग्य था कि जिस पुस्तक भंडार ने एक से बढ़कर एक नायाब पुस्तकें दी लेखकों से परिचय कराया उस पुस्तक भंडार आर्थिक रूप से इतना अशक्त हो गया कि वह अपने संस्थापक की रचना विनय पत्रिका (मैथिली अनुवाद) छापने की स्थिति में नहीं था। वैदिक और कम्युनिज्म जीत गए मगर ध्वंस हो चुका था।
भव्य अतीत वाले सरकार तिरहुत के अंतिम शासक महाराज कामेश्वर सिंह का आज के दिन ही निधन हुआ था.
और मौत भी ऐसी थी की तीन चौथाई से अधिक यह समृद्ध रियासत डेथ ड्यूटी टैक्स चुकाने में बिक गयी. जो कुछ बचा उसका सर्वनाश उनके वंशजों, कारिंदों और सरकार ने कर दिया। इसके साथ ही एक विशाल बरगद का पेड़ गिर गया जिसने मिथिला को एक सबल लीडरशिप दिया। उनका प्रभाव कहिये की मिथिला विरोधी बिल में घुसे रहते थे.
संकीर्ण सोच वालों शुरू से ही सरकार तिरहुत की थाती के इर्दगिर्द ऐसी लक्ष्मण रेखा खींच दी जिसके अंदर वही लोग जा सकते थे जिन्हें कुलीनता का टैग था. लेकिन सरकार तिरहुत ने इतनी लम्बी रेखा खींची थी जिसके सामने कुलीनता का टैग काफी छोटा था.
इतिहासकारों ने स्वतंत्रता संग्राम में इस परिवार के योगदान को कभी भी ठीक से रेखांकित नहीं किया क्यों की ऐसे में जवाहर, मोती जैसे कई लाल और आँधी की चमक धूमिल पड़ जाती।
कामेश्वर सिंह के पूर्वज लक्ष्मेश्वर सिंह कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. जब सन 1892 में अँगरेज़ सरकार ने कांग्रेस को इलाहबाद में अधिवेशन करने से मनाही कर दी थी तब लक्ष्मेश्वर सिंह रातों रात आलिशान लोथर कैसल खरीदकर कांग्रेस के नाम कर दी जहाँ अधिवेशन हुआ. लक्ष्मेश्वर सिंह जीते जी वसीयत लिख गए की जब तक राज दरभंगा अर्थात सरकार तिरहुत का अस्तित्व रहेगा कांग्रेस पार्टी को समय समय पर खोरिस (चन्दा) दिया जाता रहेगा।
लेकिन यह सब किसी को याद नहीं रहा.1952 के आम चुनाव में कामेश्वर सिंह दरभंगा से निर्दलीय प्रत्यासी के रूप में खड़े हुए. दरभंगा से कांग्रेस ने श्यामनंदन मिश्र को खड़ा किया। कामेश्वर सिंह का चुनाव चिन्ह साइकिल था। पंडित जवाहरलाल नेहरू लहेरिया सराय के पोलो मैदान में चुनावी सभा करने के लिए आये थे। राज दरभंगा को शोषक और सामंत जैसे उपाधि से नवाजते रहे नेहरूजी पुरे समय जोड़ा बैल चुनाव चिन्ह लोगों को दिखाते रहे। कामेश्वर सिंह चुनाव हार गए. यहाँ के लोगों ने उन्हें यह प्रतिदान दिया।
सरकार तिरहुत के अवसान की और भी कड़ियाँ बांकी थी. उनके वारिस राजकुमार विशेश्वर सिंह (अगर मैं सही हूँ) बौरम प्रवित्ति के थे. एक दिन उन्होंने राज की शेष बची सम्पति पांडिचेरी आश्रम को दान दे दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार तिरहुत मामले में पूर्व में प्रिवी काउन्सिल के द्वारा दिए गए कतिपय निर्णयों का हवाला देते हुए कहा की सरकार तिरहुत impartible estate की हैसियत रखती है जिसका विभाजन नहीं हो सकता है. जो कोई भी राजा हैं वह इसके कस्टोडियन मात्र हैं.
इस परिवार के वंशज एक के बाद एक मिथिला से बाहर चले गए वहीं बस गए. किसी ने प्रतीक रूप में भी राज की परम्परा को कायम करने की कोशिश नहीं की. आधुनिक मैथिली साहित्य के निर्माता पंडित सुरेंद्र झा सुमन इन्हीं कामेश्वर सिंह की खोज थे जिन्हें कामेश्वर सिंह ने मिथिला मिहिर का संपादक नियुक्त किया था. दो दिन बाद अर्थात 3 अक्टूबर को सुमनजी का जन्मदिन है.लिखने बैठेंगें तो स्याही और कागज कम पर जाएगा।
खट्टरकाका की डायरी से
Pandit Surendra Jha 'Suman' has moved into another intensity--a condition of complete simplicity. But we remember him for a further union and deeper connection with his feelings and thoughts. We can't go beyond these. He might have forgotten his own thoughts and theories but we can't because they still serve our purpose. We remember him not to pay off the debt we owe him but to enhance the interest that will go on mounting. Remembering Sumanjiis not intended to set a crown upon his life time efforts for the crown is is already set upon his hallowed head, even though we see the crown and not the head that lies in the perfect ease and peace that passeth understanding.
तिथि के अनुसार आज मैथिली साहित्य व मिथिला के विभूति व शीर्षपुरुष पंडित सुरेंद्र झा सुमन का जन्म दिवस है. मैथिली साहित्य के बृहत्-त्रयी कहे जाने वाले कवीश्वर चन्दा झा, जीवन झा और महामहोपाध्याय परमेश्वर झा व महामहोपाध्याय मुरलीधर झा के मृत्यु के बाद एक सवाल मुँह उठाये खड़ा था की मैथिली साहित्य व आंदोलन को अब कौन नेतृत्व प्रदान करेगा।
मैथिल महासभा के एक कार्यक्रम में सिरकत हुए सरकार तिरहुत के महाराज कामेश्वर सिंह इनके प्रतिभा से प्रभावित हुए जहाँ सुमनजी स्वरचित संस्कृत की कविता का पाठ कर रहे थे. महाराज ने इन्हें मिथिला मिहिर का संपादक नियुक्त किया। वह इतिहास का एक निर्णायक मोड़ था जिसने मैथिली साहित्य व पत्रकारिता की दशा और दिशा बदल दी.
मैथिली साहित्य के कई नामचीन हस्ताक्षर इनके खोज रहे हैं. अनेक भाषाओं के जानकार साहित्य की ऐसी कोई विधा नहीं है जो इनसे छूटा हो. पंडित सुरेंद्र झा सुमन संभवतः भारतीय वाङ्मय के एक मात्र व्यक्तित्व हैं जिन्होंने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की अधिकांश रचनाओं का मैथिली में अनुवाद किया।
सुरेंद्र झा सुमन मैथिली, बँगला, संस्कृत सहित कई अन्य भाषाओं के जानकार थे जिन्होंने मैथिली में क्लासिक लेखन शैली को पुष्पित पल्ल्वित किया।वह महज साहित्यकार नहीं थे वह विद्वान् साहित्यकार थे.
लेकिन जिस व्यक्ति ने अपना सम्पूर्ण जीवन मिथिला व मैथिली को होम कर दिया जिसने मैथिली के क्लासिक लिटरेचर को अपनी लेखनी से समृद्ध किया हम उन्हें या तो अज्ञानतावश या जानबूझकर भुला रहे हैं। खासकर बामपंथ विचारधारा वाले साहित्यिक समूह उन्हें इतिहास के पन्नों से हटा देने उन्हें जनमानस से बिस्मृत करने का प्रयास लम्बे समय से कर रहे है.
जिनकी कुल उपलब्धि इतने पन्ने नहीं है जितने में सुमनजी के रचनाओं की सूची है, उन्हें कालजयी घोषित करने के लिए साहित्यिक भोज भंडारा मनाया जाता है. छतरी तान लेने और लाल चश्मा पहन लेने से न सूर्य ढँक सकता है ना सूर्य ग्रहण। सुमनजी समृद्ध साहित्य के उस शिखर के विराजमान हैं जो विरलों को नसीब है.उनके जन्मदिन के अवसर पर उनकी दो रचनाओं चंडी चर्या व हनुमानबाहुक का स्कैन archive.org पर अपलोड किया है. चूँकि दुर्गा पूजा का समय है इसलिए यह पुस्तकें पाठकों को उपलब्ध कराने का विचार किया।, चंडी चर्या दुर्गासप्तसती का अडेप्सन है. सरल मैथिली में लिखी है खासकर बच्चों और उनके लिए जो संस्कृत का पाठ नहीं कर पाते हैं.
सौराठ सभा का विद्रोह बाबू कुंवर सिंह को अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह करने के प्रेरणा देने वाले उनके गुरु मंगरौनी ग्राम निवासी भिखिया दत्त झा थे. इस घटना के बाद फिरंगियों के मन में मैथिलों के लिए शंका बस गयी. उसके ठीक 15 साल बाद मधुबनी के सदर एसडीओ जे बार्लो पिटा गए.
17 मई सन 1872 को बार्लो साहेब मधुबनी जिलाअवस्थित सौराठ गाछी सभा में तहकीकात करने पहुँच गए. मैथिल पहले से फिरंगियों से नफरत करते थे उन्होंने बार्लो साहेब को ओधबाध कर पीटा। इस ओधबाध की शुरुवात बुचो झा, भैया झा, शोभालाल झा, चुन्नी झा, गिरिजा मिश्र, तूफानी झा जैसे लोगों ने की थी.
थाना मुकदमा हुआ कई लोगों को दो साल कैद बामुशक्कत व 300 रूपये से लेकर 500 रूपये तक जुर्माना भी हुआ था . इसमें से दो लोग तो नेपाल भाग गए थे. जांच कमीशन भी बैठा।
इस घटना का विवरण लोककंठ में बसी कुछ कविताओं में मिलता है इस लम्बी कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार से है. बाबूजी के पास पूरी कविता है जिसका कुछ अंश उन्होंने मुझे सुनाया।
"बालू साह मजिस्टर हाकिम साविन नाका दपरी
मध्य सभा में जखने पैसल तखने बाजल थपड़ी
दू चारि लुच्चा धरि पछुआबय साहेब के खूब मार"
इस घटना के बाद अंग्रेज़ों ने सौराठ, पोखरौनी, मांगड़, अरेर, मंगरौनी ग्राम में खूब लूटपाट किया था. उस समय पटना डिवीजन के के तत्कालीन कमिश्नर एस.सी. बेली ने जांच की थी. अपने रिपोर्ट में बेली ने कहा था की मैथिलों के मन में अंग्रेज़ों के प्रति अनुचित वैमनष्यता भरी हुई है जो खतरनाक है.
ब्रिटिश सरकार ने सौराठ सभा गाछी प्र प्रतिबन्ध लगाने की योजना भी बनायीं लेकिन ऐसा करने का साहस नहीं किया।
#जटा_शंकर_झा जिसे कृतध्न मैथिलों ने भुला दिया
कई सालों से यह सवाल मुझे परेशान कर रहा है की मिथिला के इतिहास पर प्रामाणिक व विस्तृत शोध करने वाले मूर्धन्य, स्वनामधन्य इतिहासकार प्रोफ़ेसर जटा शंकर झा विगत कई दशकों से सार्वजानिक व अकादमिक जीवन से दूर क्यों हैं. इतने दशकों में किसी ने उनकी खोज खबर क्यों नहीं ली.
आखिर किसी ने यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि आखिर वह अकादमिक व सार्वजानिक जीवन से इतने दूर क्यों हो गए. उन्हें किसी अकादमिक कार्यक्रम में ले जाते, नहीं जायें तो जिद करें, बालहठ करें।
किसी ने कहा की वह डिप्रेशन में हैं वह इनवैलिड हो चुके हैं. डिप्रेशन में वह नहीं हम लोग हैं और विद्वान् कभी इनवैलिड नहीं होता है. मिथिला में कभी प्रथा थी की बृद्ध विद्वानों के घरों पर बौद्धिक जमावड़ा लगा करता था. विद्वानों का घर ज्ञान का मंदिर है. जटा शंकर झा ने जितना लिखा उसका दस गुणा उनके स्मृति में होगा जिसमें मिथिला के इतिहास के सूत्र मिलेंगें।
अब तो जो समय है उसमें दादुर ही वक्ता हैं तब जटा शंकर झा जैसे लोगों को पूछिहें कौन.
वह हमारी बौद्धिक विरासत हैं और मैथिल इतने कृतध्न हैं की उन्होंने उसी को भुला दिया जिसने हमें मिथिला के इतिहास से परिचय कराया। किसी को इल्म नहीं की उनका यूँ गुमनाम रह जाना हमारे लिए कितना बड़ा बौद्धिक नुकसान है. विस्मरण का आलम यह है की उनकी तस्वीर भी उपलब्ध नहीं है ताकि मेरे जैसे लोग माँ सरस्वती के इस यश्वसी पुत्र का दर्शन कर पायें।
उन्होंने मिथिला के इतिहास के विभिन्न बिंदुओं पर तब शोध किया था जब शोध के साधन सिमित थे. उनके लिखे तक़रीबन सारे लेख और पुस्तकें मैंने पढ़ी है. मिथिला के इतिहास का इतना गहन ज्ञान, दस्तावेजों का अम्बार जिसका कभी नाम तक सुना उसके इर्दगिर्द इतिहास का प्रामाणिक तानाबाना बुनना औसत प्रतिभा से बाहर की बात है. आज हम उन्हीं के लिखे को घुमाफिरा कर प्रस्तुत कर रहे हैं जो जटा शंकर झा लिख गए.
आशीष भाई के अनुसार नब्बे की आयु पार कर चुके श्रद्धेय जटा शंकर झा संभवतः पटना में हैं. उन्होंने ने भी बहुत कोशिश की. उन्हें खोजिये उन्हें सार्वजनिक मंच पर लाइये। हम कंकड़ पत्थड़ इकट्ठा कर रहे हैं लेकिन मिथिला के इस कौस्तुभ मणि की खोजखबर लेने की सुधि किसी की नहीं है.
उनके द्वारा लिखित हिस्ट्री ऑफ दरभंगा राज का स्कैन कॉपी मेरे पास उपलब्ध है 8877213104 पर मेसेज करें मिल जाएगी। लेकिन एक शर्त है की आप और हम उन्हें खोज कर बाहर लायेंगें। कोई अपने थाती का यूँ अपमान नहीं कर सकता है. कोई उनके सगे सम्बन्धी हों वह जानकारी दें.

Saturday, November 11, 2017

#खट्टरकाका की डायरी से
खट्टारकका: आबह सी.सी. आई तोहर मोन किएक उतरल छौ।
सी.सी. मिश्रा: मोन इसलिए झुंझुआन और कोनादन कर रहा है कि आई मधुबनी पेंटिंग से सज्जनित मधुबनी रेलवे स्टेशन गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में स्थान स्थान बनाने से चूक गया। 7000 वर्ग फ़ीट दीवाल पर 180 कलाकारों ने दिनरात मेहनत कर मधुबनी पेंटिंग बनाया लेकिन रेलवे के हाकिम इतने ही मुर्खाधिपति थे कि उन्होंने रेकॉर्ड बनाने के अभियान की शुरुआत से पहले गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में जरूरी रजिस्ट्रेशन करबाया ही नहीं था। सब उदास हैं।
खट्टर काका: हौ जी क्या करोगे उत्तर भर (दिशा) वाला कुछ अधिक ही कबिकाठी होता है। कौआ छप्पड़ पर बैठ जाएगा तो सीढ़ी उतार लेगा की सीढ़ी के विना कौआ उतरेगा कैसे। अब रेलवे का ही ले लो कभी एक समय था कि लोहना लाइन में सिग्नल हमेशा गिरा ही रहता था इसलिए किसी ने छंद रचना कर लोहना स्टेशन को मिथिला के 10 महाबुरित्व मतलब महान बाहियात चीजों में शामिल कर दिया "स्टेशन में लोहना बुरि"
लेकिन यह मधुबनी पेंटिंग कैसा होता है मैं तो मिथिला पेंटिंग जानता हूँ।
सी. सी. मिश्रा: इसे मिथिला पेंटिंग भी कहते हैं। पूरे विश्व में यह तो मधुबनी पेंटिंग के नाम से विख्यात है।
खट्टर काका: हौ जी "बाप पेट में और पुत गेल गया" वाला बात करते हो। पहले मिथिला या मधुबनी। 45 साल पहले जो जिला बृहत्तर दरभंगा से काट कर बनाया गया हो उस जिला के नाम पर तुम लोगों ने मिथिला की हजारों साल से चली आ रही लोककला जो मिथिला के सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न भाग रहा है, का नामकरण कर दिया। मिथिला की लोककला को एक जिला अपने नाम पर केवाला (रजिस्ट्री) करवा लेगा।
सी.सी. मिश्रा: कक्का एक जापानी रिसर्चर मिथिला भ्रमण में आया था उसने इस कला के बारे में विश्व को यह कहते हुए अवगत करबाया था की यह मधुबनी पेंटिंग है। आप उसके रिसर्च पर कैसे सवाल कर सकते हैं।
खट्टर काका: इ चीनी जापानी का आँख बिज्जी (नेवला) जैसा होता है बिज्जी जैसी आँख से उसने सिर्फ मधुबनी ही देखा पूरा मिथिला नहीं। शेष मिथिला में महिलाएं और ललनाएँ क्या चित्र बनाती हैं। कोई चीनी जापानी विदेशी कुछ बोल दिया वह तुम लोगों के लिए ब्रह्म लकीर हो गया। मिथिला चित्रकला क्या है यह समझने के लिए भाष्कर कुलकर्णी और उपेंद्र महारथी जैसे कला मर्मज्ञों को पढ़ो जिन्होंने अपना जीवन इस कला को सीखने समझने में लगा दिया। उपेंद्र ठाकुर को पढ़ो लक्ष्मीनाथ झा का शोध पढ़ो।
सी.सी. मिश्रा: कक्का किसी भी विषय को समझने के लिए विकिपीडिया सबसे प्रमाणित श्रोत है वहाँ भी इसे मधुबनी पेंटिंग ही कहा गया है। खैर आपको इंटरनेट समझाने का समय नहीं है। मधुबनी पेंटिंग के बारे में पहली जानकारी तीस के दशक में हुए भूकंप के दौरान हुई थी जब राहत कार्य मे जुटे अंग्रेज़ अफसरों ने घर की दीवाल पर बने चित्र देखे। आप तो सभी के योगदान को नकार देते हैं। इस चित्रकला में मधुबनी का स्वर्णिम योगदान है इसलिए मधुबनी पेंटिंग के रूप में ख्याति मिली। मधुबनी का जितवारपुर, रांटी, मंगरौनी ऐसे कितने नाम गिनाऊँ जहाँ के कलाकारों ने इस कला को ऊंचाई दी।
खट्टारकाका: हौ जी हमको भी पता है कि तुम जैसे बुद्धिबधिया को समझाने से अधिक आसान काम कलकत्ता पैदल चले जाना है। फिर भी समझा रहा हूँ क्या पता कि तुम्हारी बुद्धि जो बाम हो चली है वह रास्ते पर आ जाए। ह ह अगर मधुबनी जिला नहीं बनता तो इस कला को लोग जानते ही नहीं। अगर योगदान पर ही नामकरण होना चाहिए तो तबके रेलमंत्री ललितनारायण मिश्र ने इस कला के प्रचार प्रसार और इसे व्यापार से जोड़ने के लिए बहुत कुछ किया। आज अगर मिथिला से बाहर लोग इस कला को जानते हैं तो उनकी बदौलत। उन्होंने तो जयंती जनता एक्सप्रेस को मिथिला पेंटिंग से सजा दिया था। तब तो मैं इस कला को ललितनारायण पेंटिंग नाम रखने के लिए आंदोलन करूँगा। सुनील दत्त ने अपनी एक फ़िल्म के सेट पर मिथिला पेंटिंग सजा रखा था तब मैं इसे दत्त पेंटिंग कहूँगा।
सी.सी. मिश्रा: लेकिन वह लोग कलाकार नहीं थे। कलाकर थी गोदावरी दत्त जैसी महिलाएं और वो गाँव जिन्हें राष्ट्र जानता है।
खट्टारकाका: कलाकार तो सभी हैं और सभी कलाकारों माँ सरस्वती से आशीर्वाद के कारण ही मिथिला के इस लोककला को जीवंत कर रखा है। किसी को पुरस्कार मिला किसी को नहीं ऐसे में दूसरे का महत्व कम कहाँ हो जाता है। जिन महिलाओं ने इस कला को सदियों से इस कला को जेनेरेशन ट्रांसफर किया उनका क्या। तुम्हारे अनुसार मधुबनी के कुछ गाँव इस कला के बहुत बड़े केंद्र हैं इसलिए इसका नामकरण मधुबनी पेंटिंग सही है। तब तो दरभंगा का बरहेता, बहादुरपुर, कबिलपुर, बलभद्रपुर, खराजपुर, पनिचोभ गाँव भी इस कला का बहुत बड़ा केंद्र है तब तो इन स्थानों के नाम पर नाम होना चाहिए। तब समस्तीपुर, पूर्णिया, जनकपुर, चंपारण, दिनाजपुर वाले भी कोर्ट में अर्जी दाखिल कर इस पेंटिंग का नाम अपने इलाके के नाम और करने का माँग करें क्योंकि वह स्थान भी आदिकाल से मिथिला पेंटिंग का बहुत बड़ा केंद्र रहा है। तुम लोग एक खास खोल में रहते हो और खास प्रकार के ढोल बजाते हो इसलिए तुम लोगों को दूसरे कलाकारों के बारे में जानकारी नहीं होती है जिन्होंने गुमनामी गरीबी और शोषण में जीवन बिताते हुए मिथिला पेंटिंग को जीवंत बनाए रखा। कबीरपुर गांव की गौड़ी देवी ने अपने जीवन काल में 10,000 से अधिक लड़कियों और लोगों को मिथिला पेंटिंग में दक्ष बना दिया बेचारी को जीवन में कभी न किसी स्टेज पर बुलाया गया ना ही कभी किसी सम्मान के लायक समझा गया मिथिला पेंटिंग को बेचकर मालामाल होने वाले माफिया उस का शोषण करते रहे और ऐसे ही एक दिन हाथ में कूँची लिए स्वर्ग सिधार गई।
सी. सी. मिश्रा : हां ऐसे इक्के-दुक्के हो सकते हैं जिन को उचित सम्मान नहीं मिला।
खट्टरकाका: तुम अपने सीमित ज्ञान के सहारे बकलोली कर रहे हो। बरहेता गांव में शिवा कश्यप और उसके परिवार ने गीत गोविंद पर आधारित मिथिला पेंटिंग की सीरीज चित्रित कर दिया इस परिवार ने मिथिला पेंटिंग पर दर्जनों शोधपरक पुस्तके लिखी है जाओ इन्हे पढ़ो।
सी. सी. मिश्र: अगर इसे मिथिला पेंटिंग ना कह मधुबनी पेंटिंग कहा जाए तो आपको क्या समस्या है कला तो वही रहेगी।
खट्टरकाका: यहाँ मेरे निजी विचार और समस्या महत्वपूर्ण नहीं है। मिथिला पेंटिंग को मधुबनी पेंटिंग कह प्रचारित करना मिथिला और मैथिली विरोधियों का बहुत बड़ा षडयंत्र है जिसे तुम जैसे लोग नहीं समझते हैं और न समझना चाहते हैं। मिथिला विरोधी तो अरसे से इस अभियान में लगे हैं कि जिस जिस चीज में मिथिला जुड़ा हो उसका सर्वनाश कर दो या उसका अर्थ और क्षेत्र सीमित कर दो। और इस अभियान को समर्थन और फंडिंग करती है मगध शासन और हिंदी के एजेंडा वाले। मिथिला पेंटिंग के साथ भी यही हो रहा है वैसे ही जैसे मिथिला से मिथिलांचल हो गया फिर मिथिला को काटपीट कर सीमांचल कोशिकांचल बनाया जा रहा है। वैसे ही जैसे मैथिली को खत्म करने के लिए अंगिका और बज्जिका खड़ा किया जा रहा है।
सी.सी. मिश्रा: लेकिन मधुबनी पेंटिंग के साथ ऐसा नहीं होगा।
खट्टारककाका: तुम मूर्ख और आत्ममुग्ध मैथिल हो जिसके घर में अगर पूस महिने में आग लग जाये तो तो वह आग बुझाने के बजाय हाथ सेंकना शुरू कर देगा। मैथिली में सम्मान प्राप्त हिंदी वाले वो घुन्ना महादेव प्रफुल्ल कुमार सिंह "मौन" वैशाली पेंटिंग वाला खुराफात शुरू कर चुके हैं और हिंदी मगध समर्थित अंगिका वाले मिथिला पेंटिंग को मंजूषा पेंटिंग कह एक अलग शैली का योजना बना रहे हैं। और यह आग तुम्हारे जितवारपुर, रांटी, मंगरौनी तक भी जाएगी।
सी. सी. मिश्रा: लेकिन मिथिला पेंटिंग का कोई ऐतिहासिक और साहित्यिक उल्लेख तो मिलता नहीं है।
खट्टरकाका: तुम लोग अंग्रेज़िया कॉलेजिया बाबू हो। तुम लोग बुद्धि, शिक्षा और संस्कार से इतने च्युत हो कि अगर तुम लोगों से तुम्हारा मूल- गोत्र और पुरखे का नाम पूछ दिया जाए तो दाँत निपोड़ लोगे। तुम लोग इंटरनेटिया जेनरेशन हो। पहले के समय में विवाह तय करने से पहले लड़के वाले लड़की के संबंध में पता करते थे की लड़की को लूरिभास और लिखिया पढिया आता है कि नहीं। इसका यह अर्थ होता था कि उक्त लड़की को चित्रकला और पारंपरिक गीत का ज्ञान है कि नहीं। पेंटिंग एक गृह कल आ रही है जिसके उत्पत्ति के बारे में किसी को जानकारी नहीं है किस कला को भूमि और दीवारों पर उकेरा जाता था जो प्रकृति के प्रकोप के कारण सुरक्षित नहीं रह सकी। मांगलिक अवसरों पर बनने वाला अरिपन मिथिला पेंटिंग है। 18 वी शताब्दी के कीर्तनिया नाटककार नंदीपति ने अपने कृष्णकेलिमाला नाटक में इसका वर्णन किया है। नाटक में कृष्ण जन्मोत्सव के अवसर पर एक कुशल महिला द्वारा आंगन में कमलपत्र चित्र अंकित किए जाने का वर्णन हुआ है। रमापति के रुक्मिणीपरिनय नाटक में रुक्मणी के विवाह के समय अरिपन बनाने का प्रसंग आया है। उसी प्रकार रमापति ने मिथिला की अरिपन कला का एक विशिष्ट प्रवेध कमल पत्र अरिपन की चर्चा की है। कोहबर चित्रण भित्ति चित्र है जो मिथिला पेंटिंग है। बहुत सारे प्राचीन पांडुलिपि मिथिला चित्रकला
से सुशोभित है। इतिहासकार प्रोफेसर राधा कृष्णा चौधरी ने अपने संग्रह में छांदोग्य विवाह पद्धति नामक ग्रंथ की एक प्राचीन चित्र पांडुलिपि के होने की सूचना दी हुई है। मेरे घर में ऐसे दर्जनों प्राचीन ज्योतिष शास्त्र संबंधित पांडुलिपि हैं जिस पर मिथिला चित्रकारी देखने को मिलती है। मिथिला की संपूर्ण तंत्र पद्धति तो मिथिला पेंटिंग में छुपी हुई है। तो अब यह बताओ उस समय यह सभी चित्र क्या मधुबनी की महिलाओं ने आकर बनाया था क्या। पूर्णिया में क्या मधुबनी की महिलाएं जाकर चित्र करती थी।
सी.सी. मिश्रा: कक्का मिथिला और मैथिली के नुकसान की कीमत पर इसे मधुबनी पेंटिंग क्यों कहें।
खट्टरकाका: हौ मधुबनी वाले विशेष ज्ञानी है। मिथिला पेंटिंग को देश विदेश में बेचकर धन्ना सेठ बने माफिया नहीं चाहते हैं कि इस चित्रकला को समग्र मिथिला की कला माना जाए क्योंकि ऐसे में राज्य और केंद्र से आने वाले सहायता अनुदान का बंटवारा हो जाएगा। जिस मिथिला पेंटिंग को एक खास योजना के तहत मधुबनी पेंटिंग कहा जा रहा है उस पेंटिंग को बेच कर माफिया वारे न्यारे हो रहे हैं जबकि कलाकार बदहाली में जी रहे हैं। उनको उनके समय, कल्पनाशीलता और श्रम के एवज में दमरी तक नहीं दिया जाता है। हमारी माताएँ और बहनें आजीविका कमाने के साथ साथ कला को बचाने के लिए अपनी आँख खराब करती हैं जिनकी कला को बेच बेच कर माड़वारी व्यापारी सांढ़ हो गया है। कभी उन कलाकारों के भी हाल समाचार पूछ लो।

http://www.prabhatkhabar.com/news/the-irony/khattar-kaka-s-diary-prabhat-khabar-literature/1070981.html

#खट्टारकका की डायरी से #SIMRIYA सिमरिया महाकुंभ विमर्श

#खट्टारकका की डायरी से #SIMRIYA सिमरिया महाकुंभ विमर्श
सी.सी. मिश्रा: खट्टर काका देखिये तिरहुत परगना के सारे धर्मभीरु लोग झोला राशन पानी लेकर सिमरिया प्रस्थान कर रहे हैं. वहां महाकुंभ का मेला लगा हुआ है. लेकिन आप जैसे नास्तिक और तर्कवादी को इस हुजूम में शामिल होते देख बड़ा अटपटा लग रहा है. लाखों लोग पुण्य कमाने के नाम पर वहाँ जायेंगें और पहले से प्रदूषित गंगा को फिर से प्रदूषित करेंगें। देखिये संत रविदास बहुत पहले कह गए थे की गंगा स्नान कर क्या होगा मन चंगा तो कठौती में गंगा।
खट्टार काका: हौ जिस भूमि पर जनक, याज्ञवल्क्य, भुवि, गौतम, कात्यायनी, गार्गी, भारती, वाचस्पति, कुमारिल जैसे दिव्य पुरुष और महिलाएं हुई जिस भूमि पर शुक्लयजुर्वेद, शतपथ ब्राह्मण, बृहदारण्यकोपनिषद्, छान्दोग्य उपनिषद, ईशावास्योपनिषद् जैसे अंसख्य ग्रन्थ लिखे गए, जिस भूमि के सिद्ध पुरुष उदयनाचार्य ने ईश्वर को चुनौती दी शंकराचार्य को निरुत्तर कर दिया और स्वामी दयानन्द सरस्वती का वाक् बंधन कर दिया वहाँ कोई धर्मभीरु नहीं होता है. मिथिला में सभी तार्किक, नैयायिक और मीमांसक होते हैं. और अगर संत रविदास गंगा को कठौती में डाल गए तो मिथिला में पुरातन काल से एक कहावत चली आ रही है आलसी लेखे गंगा बड़ी दूर। तुम लोग आधुनिक काल के अँग्रेज़िया छौड़ा हो गोआ और मुंबई समुद्र नहाने और सैर सपाटा करने जाओगे लेकिन गंगा स्नान का नाम आते ही मैकाले से वादरायण संबंध स्थापित कर लेते हो। यहां तिरहुत क्या समस्त देश से श्रद्धालु आ रहे हैं।
सी. सी. झा: लेकिन कक्का देखिये अब गंगा कितना प्रदूषित हो चुका है आस्था कैसे जगेगी। लोग गंगा के किनारे महीना दिन कल्पवास कर पता नहीं क्या पुण्य कमाते हैं।
खटटर काका: गंगा को प्रदूषित करने वाले तुम्हीं जैसे लोग हैं। मिथिला में नदी की पूजा होती है. कभी विद्यापति के काव्य को पढ़ो तुम्हें गंगा संरक्षण का सूत्र उनके काव्य में मिल जाएगा। वैसे तुम्हारी पितामही पूजा पाठ में अछिंजल के रूप में गंगा जल ही प्रयुक्त करती हैं मिनरल जल नहीं। हौ बौआ मरते समय में मुँह में गंगाजल ही डाला जाता है मिनरल नहीं। कहियो भारत के संस्कृति के विलक्षणता आ वैज्ञानिकता के बोध रहितौ तखन ने बुझितहक। ऋषि मुनियों ने महाकुम्भ, अर्धकुम्भ, कल्पवास को इसी प्रयोजन से बनाया की साल में देश के सभी हिस्से के लोग एक स्थान पर एकत्र हो सकें जिससे भारत का सांस्कृतिक और धार्मिक एकता बनी रहे और समागम होता रहे।
सी.सी. मिश्रा : लेकिन सिमरिया में महाकुम्भ मैंने तो कभी नहीं सुना न कभी शास्त्र में पढ़ा। यहां तक की बेगूसराय जिला प्रशासन ने सरकार को जो रिपोर्ट सौंपा है उसने कहा गया है कि सिमरिया में कुंभ मनाने का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है। अपने मिथिला से चुने मदन मोहन झा जो सरकार में मंत्री रहे हैं उन्होंने भी सदन को यही बात बताई थी कि सिमरिया में कुंभ बनाने का कोई ऐतिहासिक साक्षी नहीं मिला है। इसी प्रकार का प्रश्न आचार्य किशोर कुणाल ने भी उपस्थित किया था।
खटटर काका: तुम बुरिराज हो अरे साओन जनमल गीदड़ आ भादो आयल बाढ़ि त कहलकै जे एहन बाढ़ि कहियो नै देखल (सावन में पैदा हुआ गीदड़ जब भादव महीने में बाढ़ देखता है तो कहता है की ऐसी बाढ़ उसने कभी देखी ही नहीं).
कहलकै जे "बिलाड़ि गेल भाँटा बाड़ी त कहलकैक जे यैह वृन्दावन छैक" (बिल्ली जब बैगन के खेत में गयी तो कहा की वृंदावन यही है) हमलोगों ने शिक्षारंभ बालोहं जगदानन्द से किया और तुम लोगों की शुरुवात बाबा ब्लैक शीप से हुई. हम लोगों ने ग से गणेश जाना और तुम लोगों को ग से गधा. तो जिसके शिक्षा का नींव भेंड़ और गर्दभ गान से शुरू हुआ वह क्या शास्त्रों का मनन करेगा। अब अगर हाकिम और नेता ही हमारे शास्त्रों के टीकाकार बन जाएंगे तब तो कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय और लगमा गांव के संस्कृत गुरुकुल सहित मिथिला के समस्त विद्वानों को वानप्रस्थ आश्रम चला जाना चाहिए। तुम्हारे उस मूर्ख हाकिम को तो यह भी नहीं पता होगा कि सिमरिया में गंगा नदी और वाया नदी का संगम है। जहां तक रही तुम्हारे उस आचार्य की बात तो उनकी कुल उपलब्धि तो यही रहेगी उनके कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहने के दौरान महाकवि विद्यापति की हस्तलिखित पांडुलिपि चोरी हो गई जिसका आज तक कोई थाह पता नहीं चला।
सी.सी. मिश्रा : लेकिन शास्त्रों में सिमरिया में कुम्भ होने का कहाँ उल्लेख है।
खटटर काका: शास्त्रों में शाल्मली वन की चर्चा है जहाँ बृहस्पति के तुला राशि में गोचर के दौरान पूर्ण कुम्भ लगता था. हजारों साल पहले सिमरिया स्थान में पूर्णकुम्भ का आयोजन होता था जो परम्परा अज्ञात कारणों से टूट गयी. शाल्मली वन का अर्थ होता है सेमल का वन. यही शाल्मली घिसते सिमरिया बन गया।
रुद्रयामलोक्तामृतिकरणप्रयोग के श्लोक को पढ़ो "धनुराशिस्थिते भानौ गंगासागरसङ्गमे, कुम्भ राशौ तु कावेययां तुलाके शाल्मलीवने"
सूर्य, चंद्र, गुरु के अनुकूल खौगोलिक स्थिति के अनुसार सिंह राशि में नासिक, मिथुन में जग्गनाथ ओडिशा, मीन राशि में कामाख्या (असम), धनु राशि में गंगा सागर (बंगाल), कुम्भ राशि में कुम्भकोंणम अर्थात तमिलनाडु, तुला राशि में शाल्मली वन अर्थात सिमरिया (मिथिला), वृश्चिक राशि में कुरुक्षेत्र (हरियाणा), कर्क राशि में द्वारिका (गुजरात), कन्या राशि में रामेश्वरम (तमिलनाडु), तदुपरि हरिद्वार, प्रयाग और उज्जैन में पूर्णकुंभ का आयोजन होता है।
सी.सी. मिश्रा: कक्का आप आशु कवि की तरह तत्काल किसी श्लोक की रचना कर देते हैं। आप तो यह भी कह सकते हैं कि समुद्र मंथन भी मिथिला में ही हुआ था।
खट्टर काका: तब तुम वाल्मीकि रामायण और रुद्रामलोकत्तामृतिकरणप्रयोग का अध्ययन करो। इसके एक श्लोक में स्पष्ट लिखा है जिसका हिंदी अनुवाद तुम्हें बता देता हूं क्योंकि पूर्वजन्म के पाप के कारण तुमने देवभाषा पढ़ी नहीं सो समझोगे भी नहीं। देवराज इंद्र द्वारा सुनी हुई कथा को धनुष यज्ञ के अवसर पर जनकपुर जाते हुए गंगा पार करने के पश्चात महामुनि विश्वामित्र भगवान श्रीराम को सुनाते हुए कहते हैं कि प्राचीन काल में प्रयोग में इस तिरहूत क्षेत्र में हिमालय पर यंत्र समुद्र का विस्तार था उसी के उत्तर तट पर कैलाश से थोड़ी दूर पर गंगा सागर का संगम तथा वही दक्षिण तट पर मंदार पर्वत भी था इसी स्थान पर अजरत्व अमरत्व एवम आरोग्य लाभ के लिए देवता एवं राक्षसों ने मिलकर बासुकी को डोरी कश्यप के पीठ पर स्थित कर मंदार पर्वत को पत्नी बनाकर समुद्र मंथन कर अमृत प्राप्त किया था यह स्थान संप्रति बिहार प्रांत के बेगूसराय जिला मुख्यालय से नेतृत्व कोण में अवस्थित शाल्मली वन सिमरिया घाट सिद्ध होता है।
सी.सी. मिश्रा: अति विलक्षण खट्टर काका भाँग के तरंग में अब आप मिथिला में समुद्र भी ला दिए।
खट्टर काका: रुद्रयामलोकत्तामृतिकरणप्रयोग को फिर से पढ़ो सागर था या नहीं तुम्हें पता चल जाएगा तुम्हें अभी अपने अज्ञानता के डबरा से निकलने में काफी समय लगेगा। अब तो भूगोल शास्त्रियों ने भी समुद्र के अस्तित्व को माना है। क्योंकि तुम लोग मेष बुद्धि वाले हो किसी बात को तब तक नहीं मानोगे जब तक पश्चिम का कोई विद्वान ऐसा कह ना दे यह अलग बात है की पश्चिम के विद्वान भारतीय ग्रंथों से ही सब कुछ चुरा कर ले गए।
सी.सी. मिश्रा: खट्टर काका मैं आधुनिक और प्रगतिशील महफिल हूं मैं बिना सबूत के कुछ भी नहीं मानता।
खट्टर काका: धर्मशास्त्र में समुद्र मंथन के जिस भौगोलिक परिवेश सीमा चौहद्दी की चर्चा की गई है उसको आज भी परखा जा सकता है। वर्तमान समय में सिमरिया धाम के दक्षिण भूभाग के बौंसी क्षेत्र में मंदार पर्वत है। संथाल परगना के दारुक वन में वासुकी नाग द्वारा स्थापित बासुकिनाथ महादेव है। जब भगवान शिव ने समुद्र मंथन से निकले हलाहल विष का पान किया था तब विष के प्रभाव से व्याकुल हो चले शिव ने विश्व के प्रभाव को कम करने के लिए जनकपुर से 50 मील उत्तर जूटा पोखरि नाम से प्रसिद्ध पुष्करणी मैं स्नान और विश्राम किया था। इसी मिथिला भूमि पर भगवान शिव ने हलाहल को पीकर विश्व की रक्षा की थी शायद इसी विष का असर है की मैथिली जटिल और कभी-कभी कुटिल भी होते हैं।
यह भी जान लो कि जब समुद्र मंथन से अमृत निकला था और राक्षस उस अमृत घट को देवता से छीनना चाहते थे तो 11 वर्षों तक विष्णु विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते हुए और छिपते हुए तक इस अमृत घट की रक्षा की और 12 वें वर्ष में इसी सिमरिया स्थान में मोहिनी रूप धारण कर देवताओं को दीपावली के दिन अमृत पान करवाया था।
सी.सी. मिश्रा: तो इसका क्या अर्थ आप प्रशासन और सरकार के विद्वान अधिकारियों के रिपोर्ट को खारिज करते हैं।
खट्टर काका: औ जी मेरा बस चले तो मैं इन अधिकारियों के साथ-साथ नेताओं के बुद्धि का उपचार कर दूं। सिमरिया घाट में हजारों साल से कार्तिक महीने में श्रद्धालु कल्पवास करते हैं जब सूर्य तुला राशि में होते हैं। क्योंकि समुद्र मंथन के दौरान अमृत तभी निकला था जब सूर्य तुला राशि में थे इसलिए इस समिति में गंगा नदी के सिमरिया घाट पर लोग कार्तिक महीने में 1 महीना तक कल्पवास करते हैं गंगाजल को अमृत मान कर सेवन करते हैं। तुम्हारे विद्वान अधिकारी और नेताओं ने इस तथ्य के जांच पड़ताल की कोशिश की कि आखिर कार्तिक महीना में लोग सिमरिया घाट में ही कल्पवास क्यों करते हैं किसी अन्य जगह पर क्यों नहीं। यह प्रमाणित करता है कि सिमरिया में कुंभ का आयोजन होता था। चैत महीने में विशाखा नक्षत्र वारुणी योग होता है जिस युग में गंगा स्नान को मोक्षदायिनी माना जाता है और जिस स्थान पर यह मेला लगता था उस स्थान का नाम कभी वारुणी था जो आज का बरौनी है। तुम्हारे विद्वान अधिकारी और मदन मोहन झा जैसे नेता के पास ना इतना समय है और नहीं बुद्धि कि वह इन बातों का विश्लेषण करें।
सी.सी. मिश्रा: मुझे आपकी बात थोड़ी थोड़ी समझ में आ रही है।
खट्टर काका: तुम्हें थोड़ी-थोड़ी बात समझ में आ रही है यह शुभ संकेत है। जो व्यक्ति और समाज अपने उद्दात धार्मिक, सांस्कृतिक और विद्वत परंपरा और इतिहास से अपरिचित हो वह ऐसे ही मायाजाल में भटकता रहता है। ईश्वर को धन्यवाद दो कि तुम्हारा जन्म मिथिला में हुआ है। मिथिला क्षेत्र वैकुंठ लोक के समान है अतः यहां वास करने से मनुष्य जीवन मुक्त होता है यहां की यात्रा परम पूज्य पद कही गई है काशी में 1 वर्ष वास से एवं प्रयाग तथा पुष्कर में 3 वर्षों तक वास से जो फल मिलता है वही फल मिथिला में एक दिन वास मात्र से प्राप्त होता है अयोध्या के समान फल देने वाली मिथिला पुरी है। यामलसारोद्धर के मिथिला खंड में पढ़ो बृहद विष्णु पुराण का अध्ययन करो। ईश्वर की आराधना करो कि कि तुम्हें अपनी भूमि में पूर्ण कुंभ स्नान करने का शुभ अवसर मिल रहा है।
और जाते जाते मेरे भाँग का झोला आँगन से ले आयो। मुफ्त में इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया कुछ सेवा कर के जाओ.
नोट यह सब भांग के तरंग में लिखा गया अतः किसी टंकण अशुद्धि के लिए खट्टर काका जिम्मेदार नहीं हैं। क्योंकि इस पोस्ट का संबंध मेरे विद्वान मित्र अजीत भारती के गृह क्षेत्र से है इसलिए वह भी इसे पढें

Thursday, October 19, 2017

Noted Maithili writer Dr Ramdeo Jha along with his grandson Shreesh

DR RAMDEO JHA & SHREESH


इतना सा छोटा सा घर श्रीश के लिए कौतूहल का विषय है. वह इसके अंदर घुसने का रास्ता तलाश रहा है. इस छोटे से घर में चियाँ (चिड़िया) अपने बच्चा के साथ रहता है और चियाँ का बच्चा मम्मी मम्मी करता है. 
आजकल श्रीश का तबला वादन प्रेम भयंकर रूप ले चुका है घर के बर्तन खाली कनस्तर उससे भयाक्रांत हैं. सबसे अधिक भयाक्रांत मेरे बाबूजी हैं श्रीश बाबूजी को जबरदस्ती तबला सिखा रहा है.       

Tuesday, August 15, 2017

Flood in Mithila how politicians cheated land of Sita

डिस्क्लेमर: अख़बार  कतरन मेरे बाबूजी के निजी आर्काइव की है. इस पर अपने चौर्य प्रतिभा मत दिखाइयेगा 
खट्टर काका की डायरी से 

1954 के अख़बार के कतरनों को सामने रखते हुए मैं यह जानकारी लिख रहा हूँ जबकि मिथिला में हरेक साल की भाँति फिर से बाढ़ ने तांडव मचाना शुरू कर दिया है. लेकिन इस बार की ख़ास बात यह है की वर्त्तमान मिथिला की राजनीति के दो विद्रूप चेहरे दरभंगा के सांसद कीर्ति आजाद व उनके प्रतिद्वंदी और सांसद बनने को लालायित संजय कुमार झा दिल्ली में दरभंगा से हवाईसेवा शुरू करवाने की लॉबिंग कर रहे हैं. बाढ़ विकट स्थिति को देखते हुए केंद्र सरकार को इनके आग्रह मान कर तत्काल हवाईसेवा शुरू कर देनी चाहिए कम से कम लोग अपना जान माल, जानवर को लेकर दूसरे जगह तो जा सकें। वैसे एक महीना पहले इन दोनों हास्य कलाकारों ने अपने भक्त पत्रकारों की मदद से दरभंगा में एयरपोर्ट के लिए MOU हस्ताक्षर हो गया की खबर छपवा दी. उन्हें लगता है इसके सहारे वह 2019 का चुनाव जीत लेंगें। खैर हम लोगों ने कोदो दान देकर गुरु से शिक्षा अर्जित नहीं की थी.

मूल विषय पर आईये मिथिला में बाढ़,  सुखाड़ और अगलगी कोई खबर नहीं है. खबर 1954 के मिथिला मिहिर समाचार पत्र के अंकों में है. स्वतन्त्रता के कुछेक दशक पूर्व कोशी की विभीषिका ने मिथिला को दो भागों में विभाजित कर दिया था. रेल और सड़क मार्ग ध्वस्त हो गए. लेकिन सियासतदानों ने राजनितिक साजिश के तहत मिथिला को विभाजित रहने दिया। 
मिथिला के लोगों को अपने subaltern इतिहास की खोज करनी चाहिए वरना आप मिथिला के उस रहमान मियां के बारे में कभी नहीं जान पायेंगें रहमान मियाँ का जन्मभूमि कर्मभूमि था वहां के लोगों को भी रहमान मियाँ के बारे में पता नहीं होगा जिनकी किताब "कोशी का तूफ़ान उर्फ़ अकाल का हाहाकार" को कभी ब्रिटिश सरकार ने 1940 के दौरान प्रतिबंधित कर दिया था. सरौती घोघरडीहा जो  यह इसलिए की पेम्फलेट में एक कविता थी दौड़ू दौड़ू औ सरकार परजा सब जे डूबि रहल अछि कोशी के मझधार।" रहमान मियाँ ट्रेन में पाचक बेचते थे अपनी पेम्फलेटनुमा पुस्तक भी बेचते थे और मिथिला के प्रति फिरंगी सरकार की उदासीनता के खिलाफ आवाज भी उठाते थे. बाद में एक ब्रिटिश वायसराय ने कोशी क्षेत्र का कभी दौरा किया ब्रिटिश सरकार को लोगों ने असीम कष्ट का एहसास हुआ. डिजास्टर फंड से कोशी पर बाँध बनाने के लिए रकम की व्यवस्था हुई. लेकिन तब तक देश आजाद हो चुका था. नेहरूजी इस आजाद भारत के नए निजाम बने. कोसी के लिए निर्गत पैसों को पंजाब में भाकड़ा नाँगल डैम बनाने के लिए ट्रांसफर कर दिया गया. लोगों ने काफी हल्ला मचाया तो सरकार की तरफ से टका जबाब आया की खुद ही श्रमदान  कर डैम बना लें इससे सरकार के पैसे भी बचेंगें. यह आदेश नेहरूजी का था जिसे तत्कालीन योजना मंत्री गुलजारीलाल नंदा ने मिथिला के लोगों को तामिला करवाया। अगर 15 हजार लोग श्रमदान करें तो यह बाँध 10 दिनों में बन जाएगा। जब प्राण संकट में हों तो लोग कुछ भी कर लेते हैं. एक साधू स्वामी हरिनारायणानंद था ने "भारत सेवक समाज" नाम की संस्था बनायीं. रात दिन महीनों बूढ़े बच्चे जवान मर्द औरत सभी ने मिलकर सहरसा सुपौल के इलाके में कोशी पर बाँध बनाया गया। मेरे नानाजी कोशी बाँध आंदोलन के हिस्सा थे और उन्होंने श्रमदान नाम से एक नाटक लिखा था जिसका वह गाँव गाँव जान समर्थन जुटाने के लिए मंचन किया करते थे. उसी समय अधवारा समूह आंदोलन भी चला था. अधवारा समूह मिथिला की अन्य छोटी बड़ी नदियों का समूह है. मांग थी की सरकार इन पर भी बाँध बनाये।  

गिद्ध और कौए मौत और महामारी चाहते हैं और नेता व अधिकारी बाढ़ की कामना करते हैं क्यों की रिलीफ के नाम लूट मचाया जाता है जिसका कोई ऑडिट नहीं होता है. लेकिन सरकारें आपके लिए बाँध क्यों बनाये रिलीफ क्यों दे क्या आप मिथिला से हैं, और जो आप मिथिला से हैं तो आपको बाँध, बाढ़ प्रबंधन और रिलीफ के नाम पर फूटी कौड़ी नहीं मिलेगी। सो जब 1954 में कोशी में भीषण बाढ़ आयी थी उस वक़्त सहरसा के तत्कालीन कांग्रेस नेता राजेंद्र मिश्रा ने रिलीफ़ख़ोर बिहार सरकार को मिथिला की अनदेखी करने के लिए कड़ा पत्र लिखा था.

तो मिथिला में बाढ़ हरेक साल आती है नेता हरेक साल हवाई सर्वेक्षण करते हैं तत्काल कार्रवाई और स्थायी समाधान का भाषण देते हैं. 60 साल पहले और आज दिए गए उनके बयान में कोई फर्क नहीं पड़ा है. हाँ संजय झा और कीर्ति आजाद जरूर लफ्फाजी के स्तर को ऊँचा करने करने की कोशिश कर रहे हैं जिसके लिए वह बधाई के पात्र हैं  क्यों की अगर जनता को ठगो तो कुछ बड़ा ठगो.  दोनों श्रीमान से बस यही प्रार्थना है की एयरपोर्ट को ऊँची जमीन पर बनाइयेगा क्यों की यह मिथिला है बाढ़ कहीं और कभी भी आ सकती है तब लोग आप पर फिकरे कसेंगे की गयी प्लेन पानी में. प्लेन के बाद आपका अगला सगुफा क्या होगा बता दीजियेगा।