Thursday, October 10, 2019

एक अंग्रेज़ कर्नल थे जेकॉब साहेब उन्हें संस्कृत साहित्य में प्रचलित लोकोक्ति के संग्रहण और अर्थ निर्धारण का बड़ा शौक था और उन्होंने एक किताब भी छापी थी. इस पुस्तक में एक 'वधुमाषमापनन्याय' की चर्चा है. इस लोकोक्ति का उद्गम मिथिला में है. और यह आपको आत्मविवेक ग्रन्थ में भी मिल जाएगा। एक ब्राह्मण थे स्वभाव से थे थोड़े कंजूस। मगर उनकी पत्नी थी उदार ह्रदय की और उनकी मुट्ठी भी बड़ी थी सो जो कोई भी याचक दरवाजे पर आता था वह उसे अपनी बड़ी मुट्ठियों से भर भर कर अन्न देती थी. पंडितजी चिंतित रहते थे की ऐसे में पंडिताइन पुरे घर का अन्न खत्म कर दे रही है. पंडितजी के पुत्र की शादी हुई पुत्रवधु अतीव सुन्दर थी. पंडितजी ने देखा की पुत्रवधु की मुट्ठी छोटी है. उन्हें विचार आया की क्यों ना पंडिताइन के बजाय पुत्रवधु से याचकों को अन्न देने के लिए कहूं क्योकि इसकी छोटी मुट्ठी में कम अन्न आएगा।
अब पंडिताइन के बजाय पुत्रवधु अन्न देने लगी. मुट्ठी छोटी तो हो गयी लेकिन याचकों की संख्या में अप्रत्याशित बृद्धि हो गयी. कारण इलाके के भिखारी इस सुन्दर महिला के बहाने भीख मांगने के लिए आने लगे.
अब मूल कथा पर आईये।
बचपन से ही मैं शास्त्रों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया करता था और शास्त्रों से प्राप्त अनमोल सीख को व्यबहारिक जीवन में उतारा करता था.
कल्पना कीजिये की आपके रसोई में ढेर सारा पुआ पकवान बना हुआ. माताजी या मालकिन ने रसोई की खिड़की तो खोल रखी है लेकिन दरवाजे पर ताला लगाया हुआ है. अब आपको पुआ खाना है तो क्या करेंगें।
प्राचीन काल के मीमांसकों ने इसका एक सुलभ उपाय बताया हुआ है जिसकी व्याख्या 'दंडपूपन्याय' के अंतर्गत किया गया है. दंड का अर्थ हुआ डंडा और पूप का अर्थ हुआ पुआ. डंडे के सहारे पुआ नामरूपी पकवान के साथ कैसे न्याय करें।
इतना बड़ा डंडा लें जो पुआ तक पहुँच सके डंडा के अग्र भाग को नुकीला करें। खिड़की से अंदर डंडा पुआ तक ले जाएँ और इसे इसे पुआ में गड़ा कर निकाल लें और इसके स्वाद का आनंद लें.यह काम में बचपन में खूब किया करता था.
इसी प्रकार का न्याय भाईजी Krishna Deo Jha और मामा शंभूनाथ मिश्र किया करते थे. दोनों ही अपने समय क्रिकेट के बड़े शौकीन थे. नानाजी के पास रेडियो था. हमारे ननिहाल का मकान एक बंगले टाइप का था जहाँ कमरे की दिवार छप्पड़ तक नहीं होती थी. नानाजी क्रिकेट के भयानक विरोधी और मामाजी और भाईजी क्रिकेट के इतने ही बड़े शौक़ीन। तो नानाजी के स्कूल चले जाने के बाद ये दोनों रेडियो को कमरे से बाहर लाने के लिए 'दंडरेडियोहुकन्याय' प्रयोग करते थे. डंडे में हुक लगाया और रेडियो को लिफ्ट कर लिया। नानाजी के आने से पहले पुनः रेडियो को हुक में फंसा उसी जगह रख देते थे.
नानाजी भी ठहरे नैयायिक उन्हें आभास हो गया की कुछ रेडियो के साथ कुछ ना कुछ दंडपूपन्याय हो रहा है. अब स्कूल जाने से पहले वह रेडियो के चारो तरफ चॉक से निशान बना देते थे ताकि पता चल सके की रेडियो अपने स्थान पर था या नहीं। एकदिन नानाजी ने रेडियो को पतले रस्सी से बांध दिया। आगे अब यही दोनों बताएंगें की इन लोगों ने इसका क्या तोड़ निकाला।
मेरा वाले न्याय पर तो बतौर शोध किया जा सकता है. अगर अपने बच्चों को इनोवेटिव बनाना हो कुशाग्र बनाना हो तो मेरी कहानी उन्हें जरूर पढ़ाएं।
मुझे दुग्ध पदार्थ का शौक है. छाल्ही (दूध का मलाई), दही दूध जो मिले जितना मिले सब उदरस्थ, ख़ास कर मुझे छाल्ही का शौक था. मेरे रहते मेरे घर के आसपास कोई बिल्ली नहीं आती थी.
माँ इससे सबसे अधिक परेशान रहती थी. मैं मध्य रात्रि में उठकर मिटकेस में रखा दूध पी जाता था. परेशान माँ ने मिटकेस में ताला लगाना शुरू किया। दो तीन दिनों तक बहुत परेशानी हुई लेकिन मैंने इसका उपाय ढूंढा। मिटकेस में लगे लोहे के जाल में एक छोटा सा सुराख़ किया। उसके अंदर पाइप डाली और उसे दूध के वर्तन में डाला। अब मलाई ऊपर टिका हुआ है और दूध गायब। इसे 'दुग्धपाइपन्याय' कहा जाता है जिसकी मैंने खोज की थी.
कानूनन माँ साबित नहीं कर सकती थी की मैंने दूध पिया है. अब माँ दूध के वर्तन पर थाली रख उसके ऊपर कोई भारी सामान रख देती थी. इसका भी तोड़ मेरे पास था लेकिन इसका जिक्र नहीं करूंगा क्यों की अगर आपके बच्चे मुझसे प्रभावित हो गए तो आपके पास कोई रास्ता नहीं होगा।
मेरे उत्पात से तंग होकर माँ लकड़ी के संदूक में नष्ट न होने वाले खाने पीने का सामान रखती थी जिस पर ताला लगा होता था. मैं संदूक का कब्जा खोल कर सारा माल चम्पत कर देता था.
एक बार एक सज्जन जूस के एक बोतल उपहार में लाये। माँ से गुजारिश की कि मुझे चखा दो लेकिन माँ ने मना कर दिया। उसमें ढक्कन वैसा ही लगा हुआ जो सॉफ्ट ड्रिंक की बोतल में होता है जिसे आप बोतल ओपनिंग की से खोलते हैं. सामने रखा जूस का बोतल मुझे चुनौती दे रहा था की हिम्मत है तो खोल कर देख. खोल नहीं सकते थे क्यों की एक बार ढक्कन खुला तो बंद नहीं होगा।
उसका भी तोड़ था मेरे पास. मैंने आलपिन से ढक्कन में एक सूक्ष्म सुराख़ किया। मैं सुराख़ के माध्यम से बोतल के अंदर जोर से हवा भरता था और झटके से पलट दिया करता था. हवा के दबाब से वह जूस बाहर निकल मेरे जिह्वा को आह्लादित करता था. दस दिनों के भीतर बंद ढक्कन बोतल से जूस गायब। मैंने बचपन में इस प्रकार की कई लीलाएं की हुई हैं जो अब लुप्तप्राय हो गयी हैं.

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