Thursday, October 10, 2019

तीन दिन पहले एक अनुज ने दरभंगा मधुबनी के तत्कालीन समाजवादी नेता कुलानंद वैदिक के बारे में जानकारी चाही।
अव्वल वैदिकजी के संतति के पास भी उनके बारे में कोई खास जानकारी नहीं है।
मुझे जो कुछ पता है वह यह कि लहेरिया सराय (दरभंगा) में अवस्थित पुस्तक भंडार भारत के कुछएक प्रसिद्ध पर पब्लिशिंग हाउस था जिसके करीब एक हजार से अधिक कर्मचारी हुआ करते थे। इस पब्लिकेशन हाउस की शुरुआत प्रसिद्ध मिथिला प्रेमी रामलोचन शरण ने की थी।
व्यंग सम्राट हरिमोहन झा से लेकर कई नामी लेखक इस पब्लिकेशन हाउस की उपज थे। पुस्तक भंडार का दफ्तर और लहेरिया सराय उत्तर भारत के साहित्यकारों का अड्डा हुआ करता था।
सन 1947 के नवम्बर में वैदिकजी ने पुस्तक भंडार की पिकेटिंग कर दी। महीनों धरना प्रदर्शन और लॉक आउट जारी रहा।

हमारे गाँव में दर्जनों पुस्तक भंडार के कर्मचारी थे जैसे रामबुझावन झा, रामचरित्र झा, भुनेश्वर झा उर्फ भुने बाबा। ये लोग मँजे हुए कंपोजीटर थे।
आन्दोलनकारियों पर मुकदमे हुए। इस आंदोलन में हमारे एक चाचा जो बाबुजी के बड़े चचेरे भाई स्वर्गीय देवनारायण झा भी शामिल थे जो पुस्तक भंडार के कर्मचारी थे।
बहुत सारे लोग गिरफ्तार हुए जिसमें देवनारायण झा भी शामिल थे। पितामही ने बताया था कि दादाजी 1948 के जनवरी महीने में उनकी जमानत करवा कर वापस लाये थे।
जेल के अंदर ही उनको समाजवाद और साम्यवाद की ट्रेनिंग दे दी गयी। जेल से बाहर वह वह मुट्ठी बांध कर लाल सलाम करते थे। उनकी भी नौकरी गयी लेकिन उन्हें गर्व की अनुभूति थी कि उन्होंने इतना बड़ा विशाल पब्लिशिंग हाउस बन्द करवा दिया।
अंततः रामलोचन शरण ने लहेरिया सराय में पुस्तक भंडार का कारोबार काम काज बन्द कर दिया और पुस्तक भंडार पटना स्थानांतरित कर दिया गया। इसके साथ साथ हिमालय आयुर्वेद भवन भी पटना स्थानांतरित कर दिया गया। लेकिन पुस्तक भंडार और आयुर्वेद भवन इस झटके से कभी संभल नहीं पाए।
रामलोचन शरण जिन्होंने अपना जीवन मिथिला मैथिली और सहित्य को समर्पित कर दिया था यह धरना प्रदर्शन और तालाबंदी अंदर से आहत कर गयी।
उन्होंने केस मुकदमा लड़ने तक से इंकार कर दिया।
लहेरिया सराय में पुस्तक भंडार का दफ्तर वीरान हो गया वह अब साहित्य का मुर्दाघर बन गया था।
पटना में पुस्तक भंडार की वह रौनक नहीं रही जो लहेरिया सराय में हुआ करती थी। यद्यपि रामलोचन शरण और उनके पुत्र इसे मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर समझ चलाते रहे लेकिन क्या दुर्भाग्य था कि जिस पुस्तक भंडार ने एक से बढ़कर एक नायाब पुस्तकें दी लेखकों से परिचय कराया उस पुस्तक भंडार आर्थिक रूप से इतना अशक्त हो गया कि वह अपने संस्थापक की रचना विनय पत्रिका (मैथिली अनुवाद) छापने की स्थिति में नहीं था। वैदिक और कम्युनिज्म जीत गए मगर ध्वंस हो चुका था।

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