#पुस्तकालय और मेरा गांव
Vijay Deo Jha के गाँव कविलपुर में कभी एक पुस्तकालय हुआ करता था जिसकी स्थापना 1940 में हुई थी। आज पुण्यानन्द झा की लिखित पुस्तक मिथिला दर्पण पर अपने गाँव के पुस्तकालय का सील मोहर देखा। नाम था साहित्य पुस्तकालय। यह पुस्तक बाबुजी को बतौर पुरस्कार के रूप में दिया गया था।
साहित्य पुस्तकालय की स्थापना पठन पाठन को बढ़ावा देने और राष्ट्रवादी भावना को प्रचारित प्रसारित करने के लिए की गई थी इसलिए अंग्रेज बहादुर की नजर इस पुस्तकालय पर बनी रहती थी। इसकी स्थापना हमारे पुरखे पंडित हरिनारायण झा, पंडित उमाकांत झा उर्फ उमा बाबु, पंडित शिलानाथ झा उर्फ शिलाई बाबा, बाबु उमाकांत दास और बाबु राधाकांत दास जैसे लोगों ने की थी। यह पुस्तकालय शिलाई बाबा के दालान पर चलता था।
इस गाँव से एक दिलचस्प आंदोलन जो राष्ट्रीय स्तर तक फैल गया था उसकी शुरुआत हुई थी।संभवतः आजादी के बाद यह अपने आप में एक अनूठा आंदोलन था जो अश्लील साहित्य के खिलाफ था। इस आंदोलन की शुरुवात मेरे गाँव कविलपुर से सन 1955 के समय में हुई थी जो बाद में देश के अन्य हिस्सों में भी फैल गयी।
1955 में हमारे पण्डित हरिनारायण झा जो पुस्तकालय का देखरेख किया करते थे ने अश्लील साहित्य के खिलाफ अभियान शुरू किया।
उन्होंने सार्वजनिक जगह पर अश्लील साहित्य को जलाने का अभियान शुरू किया और देखा देखी दरभंगा जिला और बिहार के अन्य हिस्सों में इस अभियान की आँच महसूस की जाने लगी। दरभंगा कमला नेहरू पुस्तकालय में एक बहुत बड़ी सभा हुई थी और इस अभियान को देश के अन्य हिस्सों में शुरू करने का फैसला लिया गया।
उस समय कुशवाहा कांत, प्यारेलाल आवारा और यशपाल तथाकथित अश्लील साहित्य में चर्चित नाम थे। उस समय पूरे देश से हजारों साहित्यकारों जिसमें किशोरीदास बाजपेयी जैसे लोग शामिल थे, ने हमारे गाँव के पुस्तकालय को पत्र लिखकर इस आंदोलन को समर्थन दिया था।
इस बारे में एक खबर निर्माण पत्रिका में छपी थी। लेकिन 1980 के दौरान यह पुस्तकालय बंद हो गया और इसकी किताबें बर्बाद हो गई क्योंकि प्रबंधन पर एक अयोग्य ने कब्जा जमा लिया। इसका समृद्ध संग्रह पंसारी की दुकान पहुँच गया। अब आप अधिक पूछेंगे की इस पुस्तकालय को किसने बर्बाद किया तो मुझे नाम बताना पड़ेगा नाम बता दूँगा तो गोतिया वाली लड़ाई शुरू हो जाएगी इसलिए यही तक रहने दीजिए।
यह पोस्ट लिखते वक्त मेरे जेहन में मेरे एक बालसखा घूम रहे थे जिनसे दुखी होकर मैंने तात्कालिक रूप से संबंध विच्छेद कर लिया। वजह थी उनके द्वारा हर वक्त मेरे गांव पर अनुचित टिप्पणी करना। मेरी यह प्रवृत्ति रही है कि अगर किसी गांव में कभी कोई योग्य, विद्वान, संत प्रवृत्ति का व्यक्ति जन्म लिया हो तो उस गांव की मिट्टी को माथे पर लगाने में मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ। मगर मेरे मित्र को मेरे इस संवेदनशीलता का एहसास कभी नहीं हुआ। खैर जाने दीजिए जाकी रही भावना जैसी
शायद कभी मुंशी प्रेमचंद्र ने कहीं पर लिखा है कि राजमार्ग और रेलवे स्टेशन के किनारे बसे गांव के लोग अजीब होते हैं। वैसे संपूर्ण मिथिला ही अजीब है। अच्छे बुरे का हमेशा चक्र चलता रहता है। अगर आपको अपना स्वर्णिम इतिहास स्मरण है तो वह इतिहास पुनः पलट कर वापस आएगा। पुराण में सरस्वती नदी की चर्चा है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह सूख गई। लेकिन वह नदी भूमि के अंदर बहती रही। मेरे गाँव से माता सरस्वती कभी गई नहीं। कुछ घरों के मोह ने उन्हें बांध लिया था और फिर समय आया माता सरस्वती पुनः जिह्वा पर विराजमान हो गयी।
कविलपुर का एक विशद इतिहास रहा है। रिसर्च करने बैठिए तो कबीर के अध्यात्म से लेकर ओईनवार और खण्डवला कुल की कहानी, स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई, लोककला चित्रकला यही मिल जाएगा।
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