खट्टर काका की डायरी से
देवघर के बाबा वैद्यनाथ मंदिर में शिवरात्रि और श्रावणी मेला का पुनरारंभ सन 1647 के आसपास मैथिल ब्राह्मणों ने किया था. इस मंदिर में पूजापाठ व धार्मिक मेला का इतिहास दसवीं सदी से मौजूद है. लेकिन बाद के क्रम में हुए मुसलमानी आक्रमण मंदिर के दुरूह भौगौलिक स्थिति के कारण मंदिर लगभग निर्जन व खंडहर बन गया. मंदिर का पुनरोद्धार व मेला का प्रारम्भ वहाँ के स्थानीय मैथिल ब्राह्मणों ने किया। यह मैं नहीं कह रहा हूँ. 1847 में छपे ईस्ट इंडिया के गजट में इसकी चर्चा है.
आदि काल से मैथिल ब्राह्मण ही बाबा वैद्यनाथ के मंदिर में पूजापाठ करवाते रहे हैं जिन्हें बोलचाल की भाषा में पण्डा कहते हैं. यह टाइटिल की जगह अपना मूल लगाते हैं जैसे खवारे, पालिवार। मूल वस्तुतः मैथिल ब्राह्मणों के गाँव का नाम होता है जहाँ से पुरखे दूसरी जगह माइग्रेट हुए. मूल वाली प्रथा मिथिला से बाहर और कहीं नहीं पायी जाती है. इन्हें अपने जजमानों का जेनिओलॉजिकल रिकॉर्ड कंठस्थ होता है.
पचास दशक में यह बहुत बड़ा हंगामा हुआ था. आचार्य बिनोबा भावे ने अकस्मात् दलितों के बाबा वैद्यनाथ मंदिर प्रवेश आंदोलन की घोषणा कर दी. कुछ दलितों के साथ वह मंदिर प्रवेश करने के लिए आये. पण्डों को यह बात चुभ गयी की जब शिव के मंदिर में कोई जातिगत निषेध नहीं है तो बिनोबा भावे क्यों सौहाद्र विगाड़ रहे हैं। पण्डे भी अड़ गए कि बिनोबा भावे को अब किसी भी कीमत पर किसी भी जातिगत समूह के साथ मंदिर में प्रवेश नहीं करने देंगें। पत्थरबाजी हुई बिनोबाजी व अन्य को चोट लगी। 22 पण्डे गिरफ्तार हुए। उसके एक सप्ताह के भीतर तत्कालीन बिहार के मुख्यमंत्री कृष्ण सिंह मंदिर प्रवेश अभियान शुरू करने के लिए खुद पधारे। विनोदानंद झा जो सम्भवतः राजमहल से विधायक थे और बाद में बिहार के मुख्यमंत्री भी बने वह भी मामले को सुलझाने के लिए आ गए। उस समय देवघर के धर्मरक्षिणी सभा की मीटिंग हुई जिसमें प्रस्ताव पारित हुआ कि इस मंदिर में किसी भी सनातन धर्मावलंबी के प्रवेश पर ना कभी निषेध था और ना कभी रहेगा यह की शिव के मंदिर में कभी भी जाति आधारित विभेद नहीं किया जाता है। पंडो ने कहा कि वह इस बात का जरूर खयाल रखते हैं की श्रद्धालु मंदिर प्रांगण में नियम निष्ठा और शुद्धता का पालन करें।
हालांकि तब इस बात को खूब प्रचारित किया गया था कि इस मंदिर में जातिगत भेदभाव किया जाता है।
मतलब बेमतलब का हंगामा खड़ा हुआ था।
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