Sunday, May 1, 2022


Ideology takes a back seat, purses matter
VIJAY DEO JHA
RANCHI
You are allowed to laugh if someone believes that political ideology has something to do with any of the Rajya Sabha elections in JharkhandFrom Maharaja to business tycoon; Jharkhand has been the perfect place for political refuge. Outsiders' ability to win elections specially that of Rajya Sabha has inspired many.
The upcoming Rajya Sabha election for two seats in Jharkhand, scheduled for March 30 (following the end of the term of BJP’s SS Ahluwaliya and Mabel Rebelo of the Congress), has come as an open invitation to outsiders.
The Maharajadhiraj of Raj Darbhanga, Kameswar Singh, was not a refugee when he won Rajya Sabha election in 1952 as candidate of the Jharkhand Party of Jaipal Singh after loosing general election of 1951. But he had no connection with the tribal, the party and tribal politics of the region known as Jharkhand; a part of undivided Bihar then.
The deal was finalized in Delhi’s power corridor, mediated by then Prime Minister Jawaharlal Nehru who had persuaded hockey wizard Jaipal Singh to field Maharaja in the Rajya Sabha election. “The Unrest Axle: Ethno-Social Movement in Eastern India,” written Gautam Kumar Bera offers an insight. "Maharaja had no connection with Jharkhand Party and its ideology. The decision was resented. But none dared to oppose it," a chapter of the book reads.
A noted academician who was close to Maharaja had once revealed that Jaipal Singh was convinced that Kameswar Singh—richest landlord of India; with his two leading newspapers — Indian Nation and Aryavarta—would be an added advantage for the party. Winning Rajya Sabha election even during 50s was not possible without money as it happens today. Maharaja had to spend around Rs three lakh to keep the JP fold together, it is said.
But prior to the entry of Maharaja; politics and politicians of Jharkhand, known for their anti-outsider mindset called Diku (outsider); had ended embargo on outsider with the election of Minoo Mashani from the Ranchi Lok Sabha seat in the first general election. Mashani never turned to Ranchi after his election. In 1977 Ravindra Varma, from Kerala, had contested as Oppositions’ candidate from Ranchi Lok Sabha seat. “Quick to promise development Varma won election; became Union Labour Minister and assured to get a house here in Ranchi to serve people till rest of his life. He never returned to Ranchi,” Uttam Sengupta who had covered Varma’s election remembered. Varma though remained connected with his only friend industrialist Hanuman Prasad Sarawgi in Ranchi.

After the formation of Jharkhand in 2000, it became free hunting ground of the tycoon and refugees. Parimal Nathwani, the corporate head of Reliance Industries Limited, won Rajya Sabha election in 2008 as an independent without any effort. At least nine JMM, two RJD and a few of others made him to win. The result had left such a bad taste in the mouth of the JMM candidate Kishorilal (himself an outsider) that he had sportingly said that he would think twice to contest even a municipal election from Jharkhand. Media wasted rims of paper to narrate the success story of Nathwani: It was money that mattered.
The JMM having infamy of fielding and supporting rich and resourceful outsiders for Rajya Sabha elections had fielded RK Anand. In 2010 Rajya Sabha election, the JMM again picked an outsider; Kanwar Deep Singh; a Haryana based industrialist and owner of Alchemist Group. KD Singh had forged untenable connections with Jharkhand emotional if not ancestral, though to stop being labelled as an outsider. Few were convinced about hid dedication towards Jharkhand. The most investigated story remained an unconfirmed story of an inside deal; which nobody in the JMM attests or contests even today except feign ignorance.
Singh won the election with the help of additional five votes of the AJSU Party. But he never returned to Jharkhand after that and deserted the JMM to join the Trinmool Congress. “We have bad experience with outsider. The party leadership might have received lesson. Hope this time no outsider is given ticket and supported,” JMM MLA Sheshank Sekhar Bhokta said.
    
The JMM is not alone in doing this. The BJP and the Congress in the past have shown hospitality in fielding outsiders since there is no constitutional impropriety.

Ahluwalia, a Sikh born and brought up in Asansol, is married to a Bengali and speaks Bengali fluently was accommodated in Jharkhand. Former BJP MP Devdas Apte is not seen after his term ended. Similarly, Congress MP Mabelo Rebello of Goan descent born in Udupi and close to the Goan border with Karnataka has no connections, even remote, with Jharkhand. She has concern for a smaller part of Jharkhand, district Gumla and its surrounding area where she is learnt to have some missionary interests. With elections round the corner back room negotiation has started. Though, Jharkhand Vikash Morcha opted for a local nominee.

Monday, January 10, 2022

मैथिल ब्राह्मण मे ख़ाँ सरनेमक ऐतिहासिक तथ्य, जकर इस्लाम सँ कोनो सम्बन्ध नहि छैक

मिथिला प्रत्यक्ष रूपसं कहियो मुसलमानी शासनक अधीन नहि रहल । मिथिला अपन बुद्धि बलसं एहि ठामक सनातनी परिचितिकें सुरक्षित रखलक ।जं किछु न्यून उदाहरणकें छोड़ि देल जाय तं मिथिलाक कोनो जातिमे मुसलमानी पदनाम ओ उपाधिक प्रयोग होइत देखबामे नहि अबैत अछि जेना की बंगाल अथवा नेपालमे देखबामे अबैत अछि ।मिथिलाक दिघवय मूलक किछु भूमिहार जमिन्दार मे शाही ओ किछु दुसाधमे पासवान उपनामक प्रयोग देखबामे अबैत अछि से हाल शताब्दीक विषय थिक ।

मिथिलाक ब्राह्मणमे तीन प्रकारक उपनाम देखबामे अबैत अछि । प्रथम विद्या परम्परा जन्य कुलक्रमागत उपाधि, यथा- झा, मिश्र, पाठक, आचार्य । द्वितीय राजकीय पद जन्य कुलक्रमागत उपनाम, यथा- ठाकुर, चौधरी, राय, सिंह आदि ।तृतीय थिक पूर्वकालमे कोनो विशिष्ट क्षेत्रमे उपलब्धिक हेतु प्रदत्त उपाधि। खाँओ/खान सन उपनामकें हम एही तृतीय श्रेणी मे रखैत छी जे एकटा राजकीय उपाधि छल आ जकर सम्बन्ध दण्ड अर्थात सैन्य क्षेत्रक विशिष्ट उपलब्धिसं छल ।

ईरानी ओ पठानी मुसलमानक उपनाम खाँ/खानसं मिथिलाक दू गोट मात्र ब्राह्मण वंश दिघवय नगर ओ कुजिलवारे उल्लूक मे प्रयुक्त भेनिहार खाँओ उपनामकें अभिन्न बुझनिहार लोकनिकें एतबे कहबनि जे जं मिथिलामे मुसलमान सं उपाधि प्राप्त करबाक परम्परा ओ ओकरा कौलिक उपनामक रूपमे प्रयोग करबाक विवशता रहितय तं ओइनिवार वंशक उपनाम तुगलक अथवा लोदी एवं खंडवला वंशक उपनाम शाह ओ खान रहितय । 

मिथिलामे ब्राह्मणसं भिन्नहुं विभिन्न जातिक उपनाम यथा- चौधरी, मंडल, मरड़,राउत, खर्गा, गामी, प्रधान, पंजियार, नायक, महतो, महथा, मेहतर, सहनी, गच्छदार, कारजी आदि जे भेटैत अछि से हिन्दू शासन व्यवस्था सं सम्बद्ध पदनाम थिक जे आब कौलिक भऽ गेल अछि । एहि विषयक विशेष ज्ञान वर्णरत्नाकर ओ लिखनावलीसं भेटि जा सकैत अछि । तेहनामे जं मिथिलाक कोनो ब्राह्मणेतर जातिमे कोनो मुसलमानी उपनाम देखबामे नहि अबैत अछि तं फेर सनातन परम्पराक सबसं पैघ रक्षक मानल जायवला मिथिलाक ब्राह्मण कोना कोनो मुसलमानी उपनामकें अपन माथपर सजा कऽ राखत से स्वतः ऊह्य थिक ।

मिथिलाक ब्राह्मणक उपनाम/पदनाम आदिक इतिहासकें घोंकबाक हेतु पंजीमे संरक्षित विभिन्न वंशक उतेढ़कें देखबाक आवश्यकता अछि । एहि क्रममे मिथिलाक विशिष्ट बिसइबार वंशक उतेढ़कें देखल जा सकैछ। करनात ओ ओइनिवार वंशक सेवामे रहल एहि वंशक पुरुष लोकनिक नामक संग सान्धिविग्रहिक, राजवल्लभ, पाण्डागारिक, महावार्त्तिक, भाण्डागारिक, स्थानान्तरिक, मुद्राहस्तक, महामहत्तक आदि अनेक राजकीय पदनाम सब लागल भेटैत अछि । मुदा जें कि ई वंश भूस्वामी होयबाक कारणे ठाकुर कें कौलिक उपनाम बना लेने छलाह तें दोसर कोनो पदनाम कें स्थायी नहि कयलनि । एहि वंशक चण्डेश्वरठाकुर अपन नामक संग महत्तक अथवा महथा पदनामक संग ओहिना देखल जाइत छथि जेना परवर्त्ती खंडवला कालमे राघवसिंहक समयमे कर्महे आहपुर वंशक कुलक्रमागत सेनापति लोकनिकें जखन बख्शी पदनाम भेटलनि तं तकरा अलंकरण जकां ओ लोकनि वंशानुगत प्रयोग कयलनि । मुदा अपन उपनाम झाक त्याग नहि कयलनि । यथा - बख्शी मुकुन्दझा अथवा मुकुन्दझा बख्शी ।

एहि उतेढ़ अध्ययनक क्रममे दोसर ओइनिवार वंशक उतेढ़ सेहो उनटयबाक प्रयोजन प्रतीत होइत अछि । एहि वंशक पुरुष लोकनिक संग राजपण्डित,राजा, राय, कुमर, महत्तक आदिक अतिरिक्त एकटा दुर्लभ कोटिक पदनाम नहि अपितु उपाधि भेटैत अछि । ई उपाधि भवसिंहक तृतीय पुत्र त्रिपुरसिंहक हेतु प्रयुक्त भेलनि अछि ।ई  उपाधि अछि- दुर्ज्जन राज्य खाण्डे । एकर अर्थ अछि राज्य दुर्जनक विरुद्ध खा ण्ड उठौनिहार महायोद्धा। अपन शब्दहिसं ई व्यंजित कऽ दैत अछि जे एहन दुर्लभ उपाधि कोनो महाविशिष्ट योद्धाहिकें देल जाइत छलनि आ एही खाण्डेमे निहित अछि मिथिलाक खाँओ /खान उपाधिक सूत्र ।

एहि ओइनिवार राजवंशक उतेढ़क गम्भीर अवलोकन कयला उत्तर किछु औरो महत्वपूर्ण सूचना सब भेटैत अछि।यथा पंजीमे ओइनिवार राजवंशक सिमरौनगढ़ शाखाक वंशावलीसं ज्ञात होइत अछि जे एहि शाखाक अनेक राजपुरुष लोकनिक नामक संग "खान पराक्रम "सन विरुद लागल छनि।जेना-"मुद्राहस्तक गुणीश्वर सुतो खान पराक्रम कुमर हसाइ, खान पराक्रम सुतो रामसिंह इत्यादि ।
10• की छल ई खाण्ड, तकर उत्तर चौदहम शताब्दीक आद्यमे रचित वर्णरत्नाकरक पांचम कल्लोलक प्रयाणक वर्णनामे भेटैत अछि । एहिमे छत्तीस प्रकारक दण्डायुधक एकटा प्रकारक रूपमे खण्डा/खाण्डक परिगणन भेल अछि आ एकर पांचटा प्रकार गनाओल गेल अछि ।

•ई खाण्ड मिथिलाक एतेक प्रशस्त अस्त्र छल जे बीसम शताब्दीक आरम्भिक दशकमे रासबिहारी लालदास द्वारा रचित मिथिला दर्पणमे एहि ठामक प्रचलित शस्त्रास्त्रक नाम गनयबाक क्रममे पहिल नाम अछि- खाण्ड ।

•एही खाण्डक परिचालनमे निपुणता अथवा प्रखर योद्धा लोकनिकें प्रतीकात्मक रूपमे देल जायवला विशिष्टतम दुर्लभ उपाधि छल खाण्ड जे त्रिपुरसिंहकें प्राप्त छलनि । एही खाण्डक विकृत रूप थिक खाण/खान जाहि उपाधिक संग ओइनिवार वंशक औओही समकालमे जे दोसर पुरुष देखल जाइत छथि से थिकाह आनन्द खाण । कीर्तिलताक तेसर पल्लवमे कोनो राजकीय पुरुषक नामावलीमे प्रथम नाम एही खाण उपाधिधारी आनन्दक लेल गेलनि अछि जे कीर्त्तिसिंहक मन्त्री ओ सान्धिविग्रहिक छथि आ हिनके पौरुषपर तिरहुतकें छोड़ि कीर्त्तिसिंह जौनपुर गेल छलाह ।
13•ओइनिवार कालमे दोसर एकटा खाण उपाधिधारी भेटैत छथि यशोराज खान जे विद्यापतिक उत्तर समकालिक छलाह ओ काव्य रचना सेहो करैत छलाह ।तेसर खाण उपाधिधारी भेटैत छथि एकटा औरो ब्राह्मण मजलिस खाँव जे ओइनिवार वंशक मूल शाखाक पतनक बाद सुगौना शाखाक संग रहि किछु दिन राज-काज सम्हारने रहथि ।
14•आब प्रश्न उठैत अछि जे ई खाण्ड उपाधि खाण कोना बनि गेल? एकर उत्तर शब्दक रूप परिवर्तनक इतिहास मे भेटैत अछि । अन्तमे 'ण्ड' संयुक्ताक्षरवला शब्द जखन मुखसुखक कारणे परिवर्तित होइत अछि तं तकर प्रथम चरणमे 'ण्ड'क उच्चारण 'ड़' होइत अछि आ दोसर चरणमे 'ड़' सानुनासिक 'ण'मे परिवर्तित भऽ जाइत अछि ।यथा-

भाण्ड - भाँड़ -भाण (एकटा प्रदर्श कलाक रूपमे ख्यात)
अण्ड - आँड़ -आण
गण्ड - गाँड़ -गाण 
मण्ड - माँड़ - माण 
 एही रूप परिवर्तनक कड़ीमे -
खाण्ड - खाँड़ - खाण बनब स्वाभाविक अछि ।
   मैथिली मे एहि प्रकारक असंख्य शब्द अछि । एहि हेतु महावैयाकरण पण्डित दीनबन्धुझाक मिथिला भाषा कोष देखल जा सकैत अछि जाहि मे 'ड़' ओ 'ण' दुनू पर समाप्त भेनिहार शब्द कें अभिन्न मानि दुनू विकल्प कें स्वीकार कयल गेल अछि । यथा -
फाँड़ा - फाणा 
फोंड़ा - फोणा 
अड़ाँची - अणाची 
अड़ाँच - अणाच 
खड़ाम -खणाम इत्यादि ।
मुदा ई खाण/खान उपाधिक उच्चारण मिथिलामे खाँओ /खाँव कोना भेल सेहो एकटा विचारणीय विषय थिक । राघव विजयावलीक रचयिता कृष्ण कवि अपन रचनामे मुसलमान फौजदार सरदार खानक एहि खान उपनामकें जं खाँव कहलनि अछि तं स्पष्ट थिक जे हुनक रचनाधर्मितापर  ई मिथिलाक बोलचालक प्रभाव थिक । तथापि खाण/खान सं खांव धरिक एहि यात्राक सूत्र सेहो स्थानीय परम्परामे निहित ध्वनि परिवर्तनक विशिष्ट शैलीमे भेटैत अछि । मैथिलीमे कतोक शब्दक अन्तक सानुनासिक ध्वनि 'ओ'  अथवा 'व'मे परिवर्त्तित होइत देखल जाइछ । यथा -
नाम - नांओ 
गाम - गाओ
भ्रू - भाँओ 
खड़ाम - खड़ाँओ 
  ध्वनि परिवर्तनक एहि रूपमे 'खाण'क 'खाँव/खाँओ' उच्चारण होयब सहज सम्भाव्य अछि ।
16•एहि ठाम एकटा औरो उदाहरण देब अनुपयुक्त नहि होयत । हमरा लोकनिक छतिवनय वंशक डिहवार बलभद्रसिंहझाक जे स्थान लहेरियासरायमे छनि से एकटा प्राचीन नदीक तट पर अछि जे मसानखाँओ कहबैत अछि । एहि स्थानपर नदी घुमान लेने अछि आ नदीक घुमानवला स्थान खोण/खोंन कहबैत अछि । श्मशान खोण मुखसुखक कारणे आइ मसानखाँओ कहबैत अछि ।
17•निष्कर्ष रूपमे पुनः कहि दी जे मिथिलाक मात्र दू मूलक ब्राह्मणक किछु ग्राममे उपनामक रूपमे प्रयुक्त भेनिहार खाँओ /खाँव अथवा खाँ/खान ने उपनाम थिक, ने पदनाम थिक; ई थिक विशिष्ट कोटिक दुर्लभतम उपाधि जे कोनो युगपुरुष दुर्द्धर्ष योद्धाकें भेटैत छलनि । एकर अत्यल्प उदाहरण मिथिला मे भेटैत अछि । ई उपाधि दिघवय ओ कुजिलवार वंशक कोनो योद्धाकें भेटल छलनि पश्चात  जकरा हुनक वंशज लोकनि अपन कौलिक उपनाम बना लेलनि।जं ई खान उपाधि मुसलमानी रहितय तं विभिन्न जाहिमे सत्ता-सोरहि खान उपनाम रहितय आ मिथिला मिथिला देश नहि कहा कऽ  आइ खानदेश  कहबैत रहितय ।

Thursday, December 3, 2020

Why Indian Ulema are Silent on the wrong Practice of Love Jihad?

 

Why Indian Ulema are Silent on the wrong Practice of Love Jihad?

AI-Hasan al-Basree (d. 11 OH)- rahimahulah said: "indeed when this

Fitnah first approaches, every 'Aalim (Scholar) already knows about it

and when it passes by, then every Jaahil (Ignorant person) comes to

know of it." Translated by: Aboo 'Abdillah Bilal Hussain al-Kashmire

Reported by Ibn Sa'd (7/166)

One of the most highlighted and broadcast news is love jihad in the recent days in different casting platforms though the term has been invented in the recent past. The term has been defined here, "When a Muslim male/female marries a non-Muslim and converts them" (Urban Dictionary). The issue of love jihad has generated communal violence in India; so Indian Ulema should not keep themselves silence; due to their siience eruptions and devastations have advanced in different cities and towns; they should explain the term rationally and figuratively to stop Muslims youngsters who have been throwing themselves in the destruction. They should speak vividly that Love Jihad is not permitted by Islamic law. No Muslim can force any one to accept Islam in any case and condition. They should portray the Prophet Muhammad (PBUH)'s ideal character who did not compel any person in his period to accept Islam and never ordered his follower to impose any thing on any person who belongs to different religion, caste and creed to accept Islam. If some ignorant people, try to practice it India; they must be informed and taught; its solely responsibility goes to Muslim Ulema.

"There shall be no compulsion in [acceptance of] the religion. The right

course has become clear from the wrong. So whoever disbelieves in

Taghut and believes in Allah has grasped the most trustworthy handhold

with no break in it. And Allah is Hearing and Knowing." (Quran 2:256)

 

The Quranic Verse directs all Muslims whether they are young or old; they have no right to force any person to accept Islam. It also clarifies that right will be distinguished from wrong. Islam is not transient and moveable things that can be pasted and penetrated but it is followed by purified soul and heart. Who has given right to the transgressors to spread Islam by forcing? From where they got the idea for forcing a Non-Muslim girl to accept Islam? What kind of these people who tell lie in the name of Islam? So Indian Muslims should understand true spirit of Islam and study Quran and Hadis that will guide and lead them straight forward; protect them from destruction and shame in the world. Today, the world becomes one home by Internet, Media and computer; the Indian Ulema should stand up on all the social platform to spread true message of Islam for safety of Muslim community, especially Muslims youngsters who are being entrapped by dirty films and videos that stain their true faith. They should be awaked about Islamic doctrines.

"The duty of the messenger is only to convey (the message). Allah knoweth what ye proclaim and what ye hide." (Quran 5:99)

The Verse is the most explicit message for a rational person that the Almighty God has not commanded to force any person to accept Islam except to preach Islamic knowledge and information to others people while the Prophet (PBUH) was not allowed to do so how can common Muslim carry on such illegal and illogical willing. Sometimes, lack of knowledge leads person to the death and punishment. In fact, there are thousands people who claimed to be Muslims but their commitment and deeds must be checked whether they are Muslims only by their name. A Muslim is justified by Allah by his honest commitment and true deed. A perfect Muslims never cheat, lie and kill any one particularly in the name of Islam.

As far as love with a Muslim or non-Muslim girl in Islam is absolutely prohibited. A lot of Qur'anic Verses and Anadis moralize Muslims to keep down their eyes while girls and women are passing by for protecting their faith and from fitnah of love. While they are prohibited to observe and chase a girl and woman; how they can talk a strange girl; starts loving her and calling her at night? Indeed, today love is beyond social barrier that leads both of them to touch each other and have physical relationship sometimes. So touching, calling and irritating a girl whether Muslim or Non- Muslim is entirely Haram (Forbidden) in Islam. Obviously, those Muslims have been committing Haram deeds for years; the great questions arise, whether they can call them Muslims or Kafir. All the things must be elaborated by Indian Ulema to Muslim young generations to learn Islamic teaching otherwise they will be punished legally. These Muslims youngsters are influenced by dirty films and videos to do love and die for love that is really unethical and Haram in Islam. They have no knowledge of converting their beloved from their religion into Islam.

Indian Ulema Must step forward to expound the Love Jihad that has no space in Islamic concept. If some people or organization has been trying to do so, their commitments are unlawful and illegal according to Islamic and Indian Constitution. Those people will dare to violate the law and order, they will be lethally punished. So all Muslim youngsters are urged to purify themselves from wrong deeds and get married if they are really in proper age that is true Islamic perspective; it will protect them religiously and physically.

 

Reaction to Blasphemy: Who is Right?

 

Reaction to Blasphemy: Who is Right?

Thousands of people have been calling for a boycott of France in response to the remarks by Emmanuel Macron-French President due to recent Paris Attacks. The sheer magnitude of the protests asks for a case study in cognitive dissonance. Nobody can deny that the sentiments of millions of Muslims are hurt when the Prophet Muhammad (PBUH) is insulted, and this constitutes a valid ground for limiting freedom of speech.

If we accept this line of reasoning and take it to its logical conclusion; People's sentiments shouldn't be hurt, right? What about the following:

"And we've cast among [the Jews] animosity and hatred until the Day of Resurrection... they strive throughout the land causing corruption"

(Quran 5:64)

If you're a Jew, won't your sentiments be hurt by this? What if you demanded the Quran be banned because it insults Jews? What about the hadiths that talk about killing gays in an ideal Islamic state? Or those that mandate murder of ex-Muslims in a similar setting. Isn't it far worse than mocking them? What if Jews, gays or ex-Muslims around the world start demanding a ban on the teaching of Islamic scriptures because their sentiments are hurt?

You understand the problem now? The rationale for allowing the recitation of the Quran and the teaching of hadiths is that they're protected under freedom of speech. Nobody can come and demand that these books be banned because they promote hate and murder of various communities in idealized conditions. Shouldn't the same courtesy be extended to others? After all, the cartoonists aren't calling for the murder of a particular people, unlike the scriptures quoted above.

But here's the thing. As soon as you read this, your mind desperately wants to find excuses as to how all this doesn't fit your particular case. You scramble to find ways to project insult of the Prophet as a completely different category of hurt. And you'll succeed, of course. It's not very difficult to come up with arbitrary categories supported by post-hoc justifications. But know that it's special pleading. You want to insulate the Prophet from insult, and instead of thinking of a genuine principle that protects everyone's sentiments, you're coming up with principles that protects your particular notion of hurt, while allowing you to   teach   and   recite   books   that   hurt   (let's   say)   gays   and   other communities.

The whole thing isn't really about the Prophet; he isn't with us anymore. It's the sentiments of his followers that's the real issue, and it's these sentiments that protection is being demanded for. Imagine if disbelievers started demanding protections for their sentiments.

Let's talk more about the oft-cited Quranic verse that urges Muslims to refrain from insulting gods worshipped by other people. Not long after the above verse was revealed, God commanded the Prophet to annihilate all pagan temples in Arabia, and raze their idols to the ground. All of this just shows how our unexamined intuitions of what constitutes hurt are so tied to the culture we grew up in. We are perfectly okay with extremely hurtful acts or speech, as long as those that are hurt have been successfully demonized in our minds.

The famous incident of Abraham is narrated in the Quran where he smashes all idols and then put the axe around the largest one's neck. When questioned by his townspeople, he pointed to the one remaining idol, and said, "Well, why don't you ask him?" We all laughed at this in childhood. Here was the great Abraham, teaching stupid pagans how idiotic it was to worship idols who could neither speak not protect themselves. Never did we pause to think how hurtful it is for anyone to see his gods desecrated like that. We revelled in the triumph of "right" over "wrong", without sparing a thought about the pagans whose beloved gods were being so violated and defiled.

The argument can go on endlessly. The world populace especially Muslims must introspect if "their" definition of insult is in consonance with the "others". We live in a pluralistic society governed by various laws. Any reaction to a situation must be looked through the lens of laws & customs of the land.


 

Muslim Women Empowerment

 

Muslim Women Empowerment

Muslim women empowerment has always been discussed and debated in policy circles, media and academia. There are differential narratives, conceptions and thoughts as to what empowerment comprises of, and particularly when Muslim women are contextualized. Empowerment generally refers to the overall development of an individual enabling him/her to cherish the desired goals. But the parameter by which women empowerment must be measured is her capability to define and redefine the 'good' for her-self and, the role in decision making- in socio-cultural, economic and political arenas. However, one should not go by the literal definition of the term, rather consider it as 'process' through which self-realization is attained and makes an individual a contributor to and constituent of social progression. Muslim women are generally considered to be constrained by their belief system, the patriarchal family structures and the economic backwardness of the community as a whole. But the question remains- does religion (Islam) in the absolute sense hinder Muslim women emancipation. Or the socio-cultural rigidities and the societal structures that both Muslims and their Hindu counterparts share in common, restrict women from attaining empowerment.

Whenever Muslim women are framed in debates of empowerment, the generalizations are drawn that wholly and solely religion orients them to adopt the social roles inducing submissive behaviors, instead of the discriminatory social apparatuses and defective governmental policies. It is often maintained that Women due to their religion are reluctant towards newer social changes and modernization processes. However, wearing community identity markers does not signify an individual's unwillingness to adapt to new social changes. Rather economic and social backwardness of the community shapes the behavior of individuals, particularly women. The Muslim community in India has faced the developmental and institutional neglect which has left women at the receiving end and worst off in terms of education and employment. It would not be an exaggeration to say that the entire women section of the Muslim community grapples with these problems, particularly the rural ones. In fact, such problems are cross-sectional, marginalization needs to be inculcated and promoted so that such women become articulate about their choices and needs.

The question of religion  Islam,  in the determination of Muslim women's empowerment is not independent of influences. In a cultural complex society, India, religion couldn't be solely held responsible. Does the religion truly set the margin for Muslim women for persuasion of educational carriers in religious studies only? Let's elaborate on this question in the Indian context by analyzing the history. As numerous studies have shown that the reservation schemes instituted by government have not transformed the condition of the Muslim minority in comparison to other marginalized section. The reason being the faulty reservation system, as the Muslims have always been considered as a homogeneous society while neglecting the divisions and sub-divisions based on economic and social status and in fact on caste bases. That leads us to the fact that the religion has the least to do with the continuing illiteracy among the Muslims particularly women. In fact, Islam encourages both men and women to educate themselves so that they become active contributors to the development of the civilization.

The religion Islam puts greater emphasis on seeking of knowledge and education, because it is through education one realizes the true meaning of his/her creation. The Quran in several verses praises knowledgeable people, encourages inventive and innovative thinking and research and at the same time deprecates unoriginal and imitative knowledge. Islam does not discriminate between men and women when it comes to knowledge seeking, in fact, there is more emphasis on women education because the mother is considered to be the first school for the child. That means it a religious duty to educate a girl child.

That brings us to the point that the social rigidities and cultural conservatism were not inducted into Indian Muslims by the religion but from historical experience and shared civilizational past. For instance, Muslim communities in Bihar & Eastern Uttar Pradesh and Moplah Muslim community in Kerala have adopted a highly criticized Hindu dowry system. Hence blaming a religion simply for conservatism and restricting its women adherents for backwardness is a poor reading and understanding of the texts and commandments.

As there is no escape from the fact that Muslim women lag behind in attaining literacy equaling to other religious communities, reason being the economic destitute and community's socio-cultural marginalization. A high-level committee chaired by Dr. Gopal Singh constituted in 1980 by the Indian Government's Ministry of Home Affairs observed that Muslims are most undeveloped and marginalized Another report by the 2005 Prime Minister's High-level Committee chaired by Justice Rajendra Sachar found that the Muslim community's condition worsened than earlier. A similar report was also presented by Justice Ranganath Mishra who chaired the National Commission on

Linguistic and Religious Minorities set up by Ministry of Social Justice and empowerment, Government of India in 2005. The poor economic conditions of women deprive them of any say and also of educational and employment opportunities. According to data near about 48.11 per cent women of the Indian Muslim community are illiterate which is highest amongst the religious communities. Furthermore, in comparison to urban women, the rural are the worst off- here the majority of the women either never entre the school or leave their studies in between either before the primary stage of at the higher secondary stage. Studies further reveal that the percentage of Muslim students in higher education is the lowest and Muslim women students are nearly invisible.

The Status of Muslim women in India needs lot of attention. Special welfare schemes and reservations in political, educational and employment opportunities are the need of the hour to encourage women to empower themselves. As most of the Muslim women in India are not well aware of their rights and schemes available for them, a decentralised awareness programme is much necessary. While the governmental mechanisms are a pre-requisite for empowerment and upliftment of marginalised sections of society, particularly women. But at the community level, the role of religious and welfare organisation is required for promotion and inculcation of the true meaning of the empowerment and development. Especially, there is a greater need within Muslim community to balance between religious and modern education so that its women population is capable enough to secure a brighter future for themselves so that they can contribute in community welfare and development. At the same time, it needs to be stressed that Indian Muslim women need to understand their value, place and responsibility and to equip themselves according to changing circumstances at the same time asserting their Muslimness.

 

Real concept of Jihad in Islam and its distortion by Extremists

 

Real concept of Jihad in Islam and its distortion by Extremists

In the contemporary era, the term 'Jihad' has become associated with extremism and precisely more with Muslims. The academic literature and media regularised any violent act by a radical Muslim as 'jihad', so much that Muslim jihad and terrorism are perceived as synonyms, often. However, the meaning and interpretation of 'jihad1 varies and depends on the personal understanding of the individual. Jihad can be any act (nonviolent) aimed at transforming either individual itself or society as a whole. Unlike the erroneous western translation of the term as 'holy War" Jihad means to "struggle", "effort" or "to strive" towards betterment and annihilation of injustice. The holy Quran makes references to wars (harb), physical conflict (qital) and numerous struggles/strivings (jihad).

The western interpretations of the term have diluted its actual essence and importance. That is to say that jihad does not mean fighting and glorification of military virtues and neither is hostility inherent in it. Jihad, in any way, does not endorse violence against civilians neither encourages offensive warfare. In Islamic politics, there are clear precedents, principles and guidelines for just conduct of war. In fact, the Islamic thought prescribes usage of jihad as a defensive strategy in the wake of attacks and threats. Islam does not impose upon Muslims an outright obligation to carry out jihad against those who do not accept Islam as their religion.

Islam and jihad have always been used as tools to attain religious legitimacy and recruitment. Extremist organisations tend to find means for justification of their actions and plan besides looking for references in religious texts and accordingly appropriate those references. They always bank on religious concepts like 'jihad' for generating both 'threat' and the 'solution' to the problem. They claim to be guardians and protectors of religion itself and thereupon of the believers also.

Therefore it is crucial to highlight that there is a persistent instability in the Muslims world coupled with sectarian divisions and numerous other socio-political problems. Furthermore, Muslim nations have witnessed continuous interventions from world's strong powers, either in the name of democracy or human rights or for that matter spreading modernisation. The interferences sometimes resulted in complete failure of state structure (Afghanistan, Iraq, Yemen, Syria, etc.) and degeneration into deadly civil wars leading to the emergence of multiple armed organisations. These organisations have not only damaged but also distorted the original essence of religious concepts like jihad. There is no escape from the fact that from 9/11 till today, ordinary Muslims face an identity crisis and a continuous alienation in societies across the world due to the large spread misapprehensions.

Wednesday, October 16, 2019


खट्टर काका की डायरी से 
पोस्ट पढ़ने से पहले आप साहित्य अकादमी के ई आमंत्रण पत्र देखते छी तब आगू बात बुझते  छी. ये आमंत्रण पत्र और एकरी भाषा साहित्य अकादमी के मैथिली कन्वेनर प्रेम्मोहन मिश्र उर्फ़ कमेस्ट्री वाले सर के लैब से निकला छी. एकरा आधुनिक मैथिली बोलते छी.

यह आमंत्रण पत्र साहित्य अकादमी का छपा हुआ है जिसे अकादमी में मैथिली के 'विद्वान' संयोजक  प्रेम मोहन मिश्र और उनके जैसे ही सोधन कुर्थी जो संयोजन समिति के सदस्य हैं ने भी इस आमंत्रण पत्र पर संस्तुति दी होगी।   

आमंत्रण पत्र को पढ़कर समझा जा सकता है की अयोग्यों के चांडाल चौकड़ी ने कैसे मैथिली पर कब्जा जमाया हुआ है.   

जब अकादमी में मैथिली के प्रवेश का प्रयत्न  हो रहा था तब मैथिली के विद्वान भाषा वैज्ञानिक डॉक्टर सुभद्र झा जो इस कमिटी के सदस्य थे ने इसका विरोध यह कहते हुए किया था की भविष्य में अयोग्य लोग मिलकर मैथिली का सत्यानाश करेंगें। बँगला के विद्वान सुनीति कुमार चटर्जी और सुकुमार सेन जो मैथिली को अकादमी में शामिल करने के पक्षधर थे ने पंडित जयकांत मिश्र व सुरेंद्र झा सुमन को संवाद भिजबाया की पहले सुभद्र झा को मनाईये क्यों की वह मैथिली को शामिल करने के पक्ष में नहीं हैं. 

अंततः आदित्य नाथ झा ने सुभद्र झा से जिरह किया और कहा की अकादमी उनके विचार एक भाषा विज्ञानी के तौर पर मांग रही है ना की साहित्य के एक्सस्पर्ट के रूप में. 

 सुभद्र झा की शंका सच साबित हुई और एक दिन ऐसा भी आया जब मैथिली साहित्य व  भाषा से हजारों प्रकाश वर्ष दूर खड़े प्रेम मोहन मिश्र वीणा ठाकुर से सेटिंग गेटिंग कर अकादमी में मैथिली के प्रतिनिधि बन गए. मैथिली साहित्य के नवतुरिया छोकड़े उनसे अधिक योग्य हैं. 

लेकिन सुभद्र झा को यह इल्म नहीं था यही प्रेम मोहन मिश्र मैथिली पर आधारित भाषा विज्ञान की आजतक की सबसे अधिक दुरूह, गंभीर और शोधपरक पुस्तक The Formation of The Maithili Language के मैथिली अनुवाद करने का अकादमी का एसाइनमेंट खुद ले लेंगें। अकादमी वालों ने इस पराक्रमी विद्वान को वह एसाइनमेंट दे दिया।

सुभद्र झा अपने साथ  एक छड़ी भी रखते थे और विद्वता का दावा करने वाले अयोग्यों को हुरपेटते भी थे. सोचिये की अगर सुभद्र झा आज जीवित होते तो अकादमी वालों और इनके जैसों को मारकर तुम्बा बना देते।     

मेरे जैसे लोग यह सोचकर सन्न रह गए थे की तिकड़म के सहारे संयोजक पद हासिल करने के बाद इनका दुःसाहस इस हद तक बढ़ गया जो सुभद्र झा की पुस्तक का अनुवाद करेंगें। वह व्यक्ति जिसके लिटरेरी सेन्स नहीं है जो मैथिली ठीक से लिख नहीं सकता जिसने भाषा विज्ञान की एक पंक्ति तक नहीं पढ़ी वह एक मूर्धन्य विद्वान् शोध का श्राद्ध करेगा। उस समय उनके चमनजी टाइप भक्त अनुचर मुझसे लड़ने के लिए हरवे हथियार सहित आये थे. मैंने उन सभी को उक्त पुस्तक के पाठ सूची की एक कॉपी थमा दी की एक शब्द का अर्थ बता दो तो हम तुम्हारा जूता साफ़ करेंगें। बहरहाल वह लोग स्व थूक चाटते निकल गए.    

जिन्होंने वह पुस्तक नहीं देखी वह देख लें. अनुवाद करने के लिए आपको मैथिली भाषा का उद्भव और विकास, वैदिक संस्कृत, प्राकृत, अवहट्ट, व्याकरण, भाषा विज्ञान, ध्वनि विज्ञान, सेमेंटिक्स, फिलोलॉजी जैसे हज़ारों क्लिष्ट शब्दावलियों और ब्रांच को समझना होगा। 

डॉक्टर सुभद्र झा ने यह शोध प्रबंध तब भारत के सुप्रसिद्ध विद्वान और भाषा शास्त्री सुनीति कुमार चटर्जी के दिशा-निर्देश में लिखा था। यह पहला शोध प्रबंध था जिस पर पटना यूनिवर्सिटी ने किसी को डी लिट की उपाधि दी थी। 

एक समय ऐसा भी आया जब सुनीति बाबू ने उन्हें पढ़ाने से यह कहते हुए मना कर दिया की मैंने भाषा विज्ञान में जो कुछ भी पढ़ा था वह तुमको पढ़ा दिया है. मतलब सुभद्र झा वह थे जिनसे नॉम चोम्स्की मदद लिया करते थे.   

प्रेम मोहन मिश्र रसायन विषय के जानकार हैं मैथिली के नहीं। वह भद्र व्यक्ति जरूर हैं लेकिन मैथिली के लिए सर्वथा अयोग्य। वीणा ठाकुर के साथ निजी हित वाले समझौते के तहत वह मैथिली के प्रतिनिधि बने. पहले ही कहा की वह एक भद्र प्रकार के अयोग्य हैं और ऐसे अयोग्यों को सठ गोत्र वाले अयोग्यों द्वारा नचाना कोई कठिन बात नहीं है. 

अकादमी में वही सब तो हो रहा है. बैक डेट में पुस्तक छपती है और उसे पुरस्कार दिया जाता है. फिर कुछ लोग संदिग्ध पुरस्कृत पुस्तक को कालजयी रचना घोषित करते हुए थाल कादो में लोटने लगते हैं. शेष पाठक वर्ग सर खुजाते हुए एक दूसरे से पूछते हैं की यह पुस्तक छपी कब थी. पुरस्कार के जूरी करने वाले 
प्रेम मोहन मिश्र ने एकाधिक अवसर पर सार्वजनिक रूप से कहा की वह साहित्यिक व्यक्ति नहीं हैं  कविता उनके समझ से बाहर की बात है. लेकिन आज जब अकादमी में संयोजन में मैथिली का काव्य पाठ के माध्यम से श्राद्ध होगा तो प्रेम मोहन मिश्र एक प्रमुख कवि के रूप में रहेंगें। 

उनसे दाना पानी और खोरीश पाने वाले महानुभाव प्रेम मोहन मिश्र और उनके मण्डली के अयोग्यता को ढंकने की भले कोशिश करें इन अयोग्य लोगों की चांडाल चौकड़ी ने मैथिली के विनाश का बीड़ा उठा लिया है. 


Thursday, October 10, 2019

जो चमनजी मिथिला मैथिली और मिथिलावाद के नाम पर काकध्वनि कर रहे हैं उनके लिए बतौर विश्वाघात का नमूना पेश है.
स्वतंत्रता के बाद संपन्न हुए पहले आम चुनाव में सरकार तिरहुत के अंतिम शासक कामेश्वर सिंह दरभंगा से चुनाव लड़ रहे थे. उनका चुनाव चिन्ह था साइकिल छाप. कामेश्वर सिंह न केवल संविधान सभा के सदस्य थे. उनका व्यक्तित्व दबदबा ऐसा था की मिथिला विरोधी मिथिला का अहित करने से पहले दस बार सोचते थे. चुनाव में उन्होंने ढेर सारी साइकिल का वितरण करवाया था ताकि मतदाता और उनके इलेक्शन एजेंट बूथ तक सही समय पर जा सकें। उनके खिलाफ चुनाव प्रचार करने के लिए खुद पंडित जवाहरलाल नेहरू आये थे और दरभंगा में कह गए थे की इस सामंती जमींदार को दरभंगा सीट से हराना उनके नाक का सवाल है. मैथिलों को कहाँ उस समय एहसास रहा की कामेश्वर सिंह को उनके अपने हैं उनको हरा कर वह मिथिला का कितना नुकसान कर रहे हैं.
मिथिला और मिथिलावाद से धोखा किसने किया था.
नेहरूजी को कहाँ याद रहा की जिस कांग्रेस पार्टी का केवाला उन्होंने जबरिया अपने नाम कर लिया उस कांग्रेस पार्टी के स्थापना से लेकर आने वाले वर्षों में इस परिवार का क्या योगदान रहा था?
राज दरभंगा दो दैनिक समाचार पत्रों आर्यावर्त इंडियन नेशन का प्रकाशन किया करता था. इन दोनों अखबारों में मिथिला के मुद्दों को दमदार ढंग से रखा जाता था. इसे बंद करवाने का श्रेय किसे जाता है?
सरकार तिरहुत उर्फ़ राज दरभंगा को समाप्त करने का ऐसा हनक था की कामेश्वर सिंह के मृत्यु के बाद तीन चौथाई सम्पति महज कामेश्वर सिंह के डेथ ड्यूटी चुकाने में समाप्त हो गयी.

मिथिला में नेतृत्व की लगभग शून्यता ही रही जिसे कभी कभी कुछ खुश लोगों ने ख़तम करने की असफल चेष्टा की. बाबू जानकीनन्दन सिंह उस समय कांग्रेस के सशक्त नेता था. 1953 में कांग्रेस का अधिवेशन बंगाल के कल्याणी में होना निश्चित किया गया. बाबू जानकीनन्दन सिंह उस अधिवेशन में अलग मिथिलाराज की मांग उठाना चाहते थे. वह अपने समर्थकों के साथ कल्याणी कूच कर गए लेकिन उन्हें उनके समर्थकों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. उन्होंने एक नयी पार्टी मिथिला कांग्रेस की स्थापना की. उनकी आवाज को दबा दिया गया. जानकीनन्दन सिंह के खिलाफ जासूसी करने वाले कौन लोग थे?
धोखा किसने किया था?
डाक्टर लक्ष्मण झा मिथिलावाद की सशक्त आवाज थे. उनको पागल घोषित करने का दूषित अभियान चलाया गया. ऐसा करने वाले कौन लोग थे?
धोखा किसने दिया।
हम लोग बस अनुमान लगा सकते हैं की अगर ललित नारायण मिश्र जीवित होते थे तो आज के मिथिला का क्या स्वरुप होता। उन्हें शक था की उनकी ह्त्या कर दी जाएगी। उनकी ह्त्या कर दी गयी. कुछ आनंदमार्गियों को ह्त्या के आरोप में आरोपित कर मुकदमा चलाया गया. यह मुकदमा दशकों तक एकता कपूर के सीरियल की तरह चलता रहा. उस समय ललित बाबू की विधवा ने उनके अंतिम संस्कार पर व्यथित होकर कुछ कहा था. ललित बाबू को धोखा किसने दिया?
यही हाल कुमार गंगानंद सिंह का किया गया. उन्हें शिक्षा मंत्री बनाया तो गया लेकिन उन्हें कोई प्रसाशनिक अधिकार नहीं था.
पंडित स्व. हरिनाथ मिश्र मिथिला के एक सशक्त कॉंग्रेसी नेता थे. 1967 में कांग्रेस संगठन की ओर से चुनाव लड़ रहे थे. और उनके विरोध में कांग्रेस ने अधिवक्ता भूपनारायण झा को उम्मीदवार बनाया। हरिनाथ मिश्र को हारने के लिए इंदिरा गांधी खुद बेनीपुर चल कर आयीं थी। तब सुप्रसिद्ध मैथिली कवि काशीकान्त मिश्र मधुप ने एक कविता लिखी थी दुर दुर छिया छिया छिया हरि के हरबै ले एली नेहरूजी के धिया". राजीव गाँधी ने हरिनाथ मिश्र को कैसे दुत्कारा था यह शायद कम लोगों को पता होगा। मुख्यमंत्री विनोदानंद झा को ऐसे ही चलता कर दिया गया.
धोखाधड़ी के कितने उदहारण दूँ
कोसी नदी की विभीषिका मिथिला को बर्बाद करती रही. आजादी से पूर्व ब्रिटिश सरकार ने कोसी पर बाँध बनाने के लिए फंड निर्धारित किया। देश आजाद हुआ और कोसी बाँध का फंड पंजाब ट्रांसफर हो गया. इसका बहुत विरोध हुआ था. नेहरूजी तब कहा की सरकार के पास पैसे नहीं हैं इसलिए लोग श्रमदान से बाँध बना लें. भारत सेवक समाज की स्थापना हुई और लोगों ने श्रमदान कर बाँध बना भी लिया। जब पंडित नेहरू इसका उद्घाटन करने आये थे तब नाराज लोगों ने उन्हें सड़ा आम भिजवाया था.
1934 के भूकंप ने मिथिला को दो भागों में विभाजित कर दिया। सड़क, रेल और पुल संपर्क ध्वस्त हो गए. तो उन सत्तर सालों में क्यों केंद्र सरकार ने मिथिला के भौगौलिक एकीकरण के लिए कदम नहीं उठाया?
धोखा किसने दिया था?
मिथिला का एकीकरण सन 2003 अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के दौरान हुआ जब कोसी पर पुल निर्माण हुआ, ध्वस्त रेल लाइन के निर्माण की संस्तुति दी गयी. मैथिली को संविधान के आठवें अनुसूची में स्थान उन्हीं के कार्यकाल में मिला। लेकिन जब चुनाव हुए तो भाजपा मिथिला में बुरी तरह पराजित हुई. अगर अटलजी ने सचमुच में मिथिला के लिए ऐतिहासिक काम किया तो आपने उन्हें हराया क्यों?
धोखा किसने दिया था?
कभी मिथिला चीनी, कागज़ उत्पादन और पुस्तक प्रकाशन जैसे उद्योग का केंद्र हुआ करता था. आचार्य रामलोचन शरण का पुस्तक भण्डार और हिमालय औषधि केंद्र पुरे भारत में विख्यात था. इन दो संस्थानों को बर्बाद करने का श्रेय लदारी गाँव के निवासी और समाजवादी नेता कुलानन्द वैदिकजी को जाता है. बामपंथी नेता सूरज नारायण सिंह चीनी मिल को खा गए तो अशोक पेपर मिल को कामरेड उमाधर सिंह खा गए. बरौनी खाद कारखाना, पूर्णिया और फारबिसगंज के जुट मिल को बर्बाद करने का श्रेय बामपंथ को जाता है.
धोखा किसने दिया था?
1980 वही कॉंग्रेसी सरकार थी. जग्गनाथ मिश्र मुख्यमंत्री हुआ करते थे. लेकिन सरकार ने मैथिली के दावे को दरकिनार करते हुए उर्दू को द्वितीय राजभाषा बना दिया। तब किसी कॉंग्रेसी बामपंथी ने विरोध नहीं किया था. विरोध किया था तो RSS और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने. पूर्णिया में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् एक बड़ा आंदोलन किया था. आज जो समर्पित कॉंग्रेसी वह तथाकथित स्वर्णकाल ब्राह्मणों का वह स्वर्ण युग याद कर आर्तनाद कर रहे हैं वह बताएं की वह अपने निजी लाभ की कहानी बता रहे हैं या संपूर्ण मिथिला की.
धोखा किसने दिया था?
लालू प्रसाद सामाजिक न्याय के घोड़े पर सवार होकर आये. मैथिली उनके द्वेष का पहला शिकार बनी. मैथिली को BPSC और स्कूली शिक्षा से निकाल दिया गया. उस समय कौन से लोग मौन बैठे हुए थे? इस सरकार को किसका समर्थन था? लालू प्रसाद के राजनैतिक पुरोहित कौन थे?
इसके खिलाफ क़ानूनी लड़ाई ताराकांत झा ने लड़ी थी. लेकिन दुर्भाग्य की मिथिला के कांग्रेस नेताओं की तरह मिथिला के भाजपाइयों की जुबान नहीं थी. अब्दुल बारी सिद्द्की दरभंगा से चुनाव लड़ रहे हैं वह लालू प्रसाद के इस तानाशाही फैसले के साथ खड़े थे. और आज उन्होंने मैथिली में एक चुनावी पर्चा क्या जारी कर दिया की चमनजी मारे ख़ुशी के लोटपोट हो रहे हैं.
यह वही अली अशरफ फातमी हैं जिन्होंने मैथिली को संविधान के आठवें अनुसूची में शामिल करने के फैसले का प्रतिकार किया था. उस समय मिथिला के बामपंथी नेता अंदर ही अंदर इस पुरे अभियान का भट्टा बिठाने के लिए बिसात बिछा रहे थे.
पुरे मिथिला को इंडियन मुजाहिदीन का रिक्रूटमेंट ग्राउंड बना दिया और हम बेखबर रहे की कैसे हमारे बच्चों को जिहाद की आग में झोंका जा रहा है.
धोखा किसने दिया था?
नितीश कुमार भी उसी राह पर हैं.
कांग्रेस अपने कर्मों का फल भोग रही है. कारावास में लालू प्रसाद और यदुकुल में घमासान लालू प्रसाद के प्रारब्ध की शुरुवात है. नितीश कुमार को दैवीय संकेत मिल रहे हैं. भाजपा ने मिथिला के लिए कभी कुछ अच्छा किया था यही उसकी एकमात्र संचित निधि है. तय भाजपा को करना है की वह अपने लिए कौन सा प्रारब्ध चुनेगी।
यूँ बौद्धों की तरह ना कीजिये
मिथिला में बौद्ध भिक्षुओं स्थानीय लोगों के बीच जमकर खींचातानी होती थी जैसे कि आज गैर बीजेपी और बीजेपी समर्थकों के बीच बेमतलब की बतकही होती है।
यह बौद्ध भिक्षु भी चमन जी टाइप कुटिल हुआ करते थे। उदाहरण के रूप में मिथिला में बच्चों के शिक्षारम्भ के समय पंडित विद्वान बच्चों का हाथ पकड़ पर स्लेट पर आँजी का चिन्ह बनवाते थे। आँजी स्वातिक की तरह एक धार्मिक चिन्ह है जो गणेशजी की आकृति है। इसके साथ साथ सिद्धि और रस्तु लिखवाते थे।
फट से बौद्ध भिक्षुओं ने इस पर एक व्यंग बना दिया "आँजी सिद्धि रस्तु चूड़ा दही हसथु"
हसथु का मतलब हुआ दोनों हाथों से हसोथना।
अब इन बौद्ध भिक्षुओं ने हमारे भोजन के समृद्ध परंपरा पर प्रहार किया तो जवाब तो देना ही था।
यह बौद्ध भिक्षु शिक्षा का आरंभ ओम नमः सिद्धम से करते थे। मैथिलों ने भी ऐसा पैरोडी बनाया की भंते चमनजी छिलमिला गए। यह ऐसा था "ओना मासी धं गुरुजी चितंग"
एक थे कुमारिल भट्ट उन्हें प्रछन्न बौद्ध कहा जाता है। वह दिन में पौधों के बीच बौद्ध मठ में बुद्धिज़्म की पढ़ाई करते थे और रात में अपने घर में बुद्धिज्म के खंडन मंडन का सूत्र लिखते थे।
मैथिलों ने लड़ाई का दूसरा तरीका भी अपनाया। महात्मा बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित कर दिया गया और कहीं कहीं बुद्ध की पूजा एक विशेष रीति से की जाने लगी। बतौर बुद्ध की मूर्ति पर लोग कंकड़ पत्थर फेंक कर पूजा करते थे। इसलिए बुद्ध को लोग ढेलमारा गोसाइँ भी कहते हैं और कालांतर मिथिला में ढेलमारा गोसाइँ एक मुहावरा बन गया।
उस समय की लड़ाई में तो कुछ रचनाधर्मिता भी थी और आज तो कभी रचनाधर्मिता के लिए पहचान बना चुके हुलेले हुलेले कर रहे हैं।
मोदी केदारनाथ जायें या बद्रीनाथ,आपको क्या पड़ी हुई है। राहुल गांधी भी नानी गाँव जायें किसी ने रोका है क्या।
वह तप करें फकीर बनें या पुनः प्रधानमंत्री बनें विधाता ने जो तय किया है वही होगा। आपके आप कोई दूसरा काम नहीं है? और आपको क्या लगता है कि आपके पोस्ट को विधाता पढ़ते हैं। आपका भी मन करता है तो राहुल गांधी आपका मन रखने के लिए वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश कर जायें। संविधान में मूल कर्तव्य वाला भी चैप्टर है कभी उस पर भी दया कीजिये और ये बौद्धों की तरह हरकत बन्द कीजिये।
#पुस्तकालय और मेरा गांव
Vijay Deo Jha के गाँव कविलपुर में कभी एक पुस्तकालय हुआ करता था जिसकी स्थापना 1940 में हुई थी। आज पुण्यानन्द झा की लिखित पुस्तक मिथिला दर्पण पर अपने गाँव के पुस्तकालय का सील मोहर देखा। नाम था साहित्य पुस्तकालय। यह पुस्तक बाबुजी को बतौर पुरस्कार के रूप में दिया गया था।
साहित्य पुस्तकालय की स्थापना पठन पाठन को बढ़ावा देने और राष्ट्रवादी भावना को प्रचारित प्रसारित करने के लिए की गई थी इसलिए अंग्रेज बहादुर की नजर इस पुस्तकालय पर बनी रहती थी। इसकी स्थापना हमारे पुरखे पंडित हरिनारायण झा, पंडित उमाकांत झा उर्फ उमा बाबु, पंडित शिलानाथ झा उर्फ शिलाई बाबा, बाबु उमाकांत दास और बाबु राधाकांत दास जैसे लोगों ने की थी। यह पुस्तकालय शिलाई बाबा के दालान पर चलता था।
इस गाँव से एक दिलचस्प आंदोलन जो राष्ट्रीय स्तर तक फैल गया था उसकी शुरुआत हुई थी।संभवतः आजादी के बाद यह अपने आप में एक अनूठा आंदोलन था जो अश्लील साहित्य के खिलाफ था। इस आंदोलन की शुरुवात मेरे गाँव कविलपुर से सन 1955 के समय में हुई थी जो बाद में देश के अन्य हिस्सों में भी फैल गयी।
1955 में हमारे पण्डित हरिनारायण झा जो पुस्तकालय का देखरेख किया करते थे ने अश्लील साहित्य के खिलाफ अभियान शुरू किया।
उन्होंने सार्वजनिक जगह पर अश्लील साहित्य को जलाने का अभियान शुरू किया और देखा देखी दरभंगा जिला और बिहार के अन्य हिस्सों में इस अभियान की आँच महसूस की जाने लगी। दरभंगा कमला नेहरू पुस्तकालय में एक बहुत बड़ी सभा हुई थी और इस अभियान को देश के अन्य हिस्सों में शुरू करने का फैसला लिया गया।
उस समय कुशवाहा कांत, प्यारेलाल आवारा और यशपाल तथाकथित अश्लील साहित्य में चर्चित नाम थे। उस समय पूरे देश से हजारों साहित्यकारों जिसमें किशोरीदास बाजपेयी जैसे लोग शामिल थे, ने हमारे गाँव के पुस्तकालय को पत्र लिखकर इस आंदोलन को समर्थन दिया था।
इस बारे में एक खबर निर्माण पत्रिका में छपी थी। लेकिन 1980 के दौरान यह पुस्तकालय बंद हो गया और इसकी किताबें बर्बाद हो गई क्योंकि प्रबंधन पर एक अयोग्य ने कब्जा जमा लिया। इसका समृद्ध संग्रह पंसारी की दुकान पहुँच गया। अब आप अधिक पूछेंगे की इस पुस्तकालय को किसने बर्बाद किया तो मुझे नाम बताना पड़ेगा नाम बता दूँगा तो गोतिया वाली लड़ाई शुरू हो जाएगी इसलिए यही तक रहने दीजिए।
यह पोस्ट लिखते वक्त मेरे जेहन में मेरे एक बालसखा घूम रहे थे जिनसे दुखी होकर मैंने तात्कालिक रूप से संबंध विच्छेद कर लिया। वजह थी उनके द्वारा हर वक्त मेरे गांव पर अनुचित टिप्पणी करना। मेरी यह प्रवृत्ति रही है कि अगर किसी गांव में कभी कोई योग्य, विद्वान, संत प्रवृत्ति का व्यक्ति जन्म लिया हो तो उस गांव की मिट्टी को माथे पर लगाने में मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ। मगर मेरे मित्र को मेरे इस संवेदनशीलता का एहसास कभी नहीं हुआ। खैर जाने दीजिए जाकी रही भावना जैसी
शायद कभी मुंशी प्रेमचंद्र ने कहीं पर लिखा है कि राजमार्ग और रेलवे स्टेशन के किनारे बसे गांव के लोग अजीब होते हैं। वैसे संपूर्ण मिथिला ही अजीब है। अच्छे बुरे का हमेशा चक्र चलता रहता है। अगर आपको अपना स्वर्णिम इतिहास स्मरण है तो वह इतिहास पुनः पलट कर वापस आएगा। पुराण में सरस्वती नदी की चर्चा है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह सूख गई। लेकिन वह नदी भूमि के अंदर बहती रही। मेरे गाँव से माता सरस्वती कभी गई नहीं। कुछ घरों के मोह ने उन्हें बांध लिया था और फिर समय आया माता सरस्वती पुनः जिह्वा पर विराजमान हो गयी।
कविलपुर का एक विशद इतिहास रहा है। रिसर्च करने बैठिए तो कबीर के अध्यात्म से लेकर ओईनवार और खण्डवला कुल की कहानी, स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई, लोककला चित्रकला यही मिल जाएगा।